दुःख-दर्द की माँग
महाराज रन्तिदेव मनु के वंश में उत्पन्न हुए थे, इनके पिता का नाम सुकृत था| महाराज रन्तिदेव में मानवता कूट-कूट कर भरी हुई थी| ये प्राणीमात्र में भगवान् को देखा करते थे|
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सभी के लिये इनके हृदय में करुणा का सागर सदा लहराता रहता था| दैवयोग से इनका परिवार भी इन्हीं की तरह उदार बन गया था| परिवार का प्रत्येक सदस्य स्वयं न खा-पीकर दूसरे के खिलाने का ही अभ्यस्त हो गया था| अपने दुःख-दर्द का उन्हें कभी ध्यान न होता था| दूसरे के दुःख दर्द मिटाने से ही उन्हें संतोष होता था|
एक बार पूरे परिवार को अड़तालीस दिन तक फाँके लगाने पड़े| किसी को जल तक नहीं मिला था| भूख और प्यास से परिवार काँप रहा था| संयोग से उन्हें उनचासवें दिन प्रातःकाल ही थोड़ा-सा खीर-हलवा मिला| ज्यों ही उन लोगों ने भोजन करना चाहा, त्यों ही अतिथि के रूप में एक ब्राह्मण आ गया| अतिथि को आया देख लोग संतुष्ट हो गये| मानो उनकी भूख-प्यास ही मिट गयी| बड़ी श्रद्धा और आदर से उन्होंने अतिथि ब्राह्मण को भोजन कराया| ब्राह्मण देवता के चले जाने के बाद बचे हुए अन्न को रन्तिदेव ने आपस में बाँट लिया| ज्यों ही उन्होंने भोजन करना चाहा, त्यों ही एक शूद्र अतिथि आ गया| रन्तिदेव ने इस अतिथि को भी पूर्ण संतुष्ट किया, उन्हें मालूम पड़ा कि भगवान् ने हीं उनको भोजन कर लिया है| वे भगवान् के स्निग्ध स्मरण में विभोर हो गये| शूद्र अतिथि के जाते ही वहाँ एक अतिथि और आ गया| उसके पास बहुत-से कुत्ते थे| उसने कहा-‘मैं बहुत भूखा हूँ, मेरे कुत्ते भी बहुत भूखे हैं| कुछ खाने को दीजिये|’ रन्तिदेव ने जो कुछ बचा था, सब-का-सब उस भूखे अतिथि को दे दिया और भगवन्मय कुत्तों और अतिथि को प्रेम से प्रणाम किया| अब केवल जल बच रहा था, वह भी केवल एक ही व्यक्ति के पीने भर के लिये था| वे आपस में बाँटकर उस जल को पीना ही चाह रहे थे कि एक चाण्डाल आ पहुँचा और कहा, ‘मैं प्यासा हूँ, मुझे जल दे दीजिये|’ चाण्डाल की वाणी करुणा से भरी हुई थी| मारे प्यास के उसके मुख से बोली भी नहीं निकल रही थी| उसकी दशा देखकर रन्तिदेव हृदय दया से आर्द्र हो गया| उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि ‘भगवान्! मुझे सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित कर दो, जिससे उनका सब दुःख-दर्द मैं ही झेल लूँ और वे सुखी बने रहें|’
जल पीने से बेचारे के जीवन रक्षा हो गयी| महाराज के भूख-प्यास की पीड़ा, शिथिलता, दीनता, मोह आदि सब जाते रहे|
मानवता के इतिहास में यह अनूठी घटना है| इस गाथा को लोक और परलोक में आज भी लोग आदर से गाते हैं| महाराज रन्तिदेव ने मानवता के मस्तक को ऊँचा किया है| भारत को उन पर गर्व है|