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धूर्तता का परिणाम

किसी समय में गंगा तट पर माकंदिका नाम की एक नगरी थी| वहां एक साधु रहता था, जिसने मौनव्रत धारण किया था| भिक्षा मांगना ही उसकी आजीविका का साधन था|

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वह साधु अपने अनेक शिष्यों के साथ एक बौद्ध विहार में रहता था| एक बार वह भिक्षा के लिए एक वैश्य के घर जा पहुंचा| उसके भिक्षा मांगने पर एक सुंदर कन्या भिक्षा लेकर आई, जिसे देखते ही सब कुछ भूलकर साधु उस पर आसक्त हो गया और उसके मुंह से निकल पड़ा – “हाय मैं मरा!”

कन्या के पिता ने सब कुछ देखते हुए भी उस समय कुछ न कहा, साधु भिक्षा लेकर चला गया| इसके बाद वह वैश्य साधु के पास पहुंचा और उससे बोला – “मुनिवर! आज आप अपना मौन तोड़कर कैसे चिल्ला रहे थे?”

साधु बड़ा धूर्त था| वह वैश्य कन्या से अपने मन को नहीं हटा पा रहा था, अत: उसने इसे अपनी इच्छापूर्ति का उचित अवसर समझा| वह बोला – “तुम्हारी पुत्री ही मेरे मौनव्रत को तोड़ने का कारण है|”

“मेरी कन्या! क्या हुआ उसे?” आश्चर्य में डूबे वैश्य ने पूछा|

“नहीं-नहीं, उसे कुछ नहीं हुआ, किंतु तुम्हें अवश्य कुछ होने वाला है|”

“क्या होने वाला है? साफ-साफ कहो|”

“सुनो!” साधु बोला – “वास्तव में, मैं तुम्हारा कल्याण चाहता हूं, इसीलिए मैं बोल पड़ा| सत्य तो यह है कि तुम्हारी यह कन्या बड़े अशुभ लक्षणों वाली है| इसके विवाह के शीघ्र बाद तुम पूरी तरह नष्ट हो जाओगे| तुम मेरे भक्त हो| मैं तुम्हारा विनाश होता नहीं देख सकता, इसलिए आज मेरा मौनव्रत टूट गया|”

यह सुन वैश्य बड़ा चिंतित हुआ और साधु से बोला – “भगवन्! क्या इस विनाश से बचने का कोई उपाय नहीं है?”

कुछ सोचने का ढोंग करता हुआ साधु बोला – “हां है, तुम एक कार्य करो|”

“आप बताइए, मैं वही करूंगा|”

“इस कन्या को लकड़ी के संदूक में बंद करो, उसके ऊपर दीपक जलाओ और उसे गंगा में बहा दो|”

भीरु लोगों में अपनी बुद्धि तो होती नहीं, वैश्य ने सोचा कि यदि ऐसा कर देने से बला टल जाए तो क्या बुरा है! वह ऐसा करने के लिए तत्पर हो गया और धूर्त साधु के कहे अनुसार उसने अपनी कन्या को गंगा में बहा दिया| उधर वह साधु बड़ा प्रसन्न था|

उस धूर्त साधु ने अपने शिष्यों से कहा – “जाओ, तुम्हें नदी में दीपक जलता हुआ एक काष्ठ का संदूक मिलेगा| उससे यदि कोई आवाज भी आए तो खोलना मत, यहां ले आना और मुझे सौंप देना|”

‘मेरे मन कुछ और है, साईं के कुछ और|’ विचित्र संयोग देखिए, जिस समय वैश्य अपनी पुत्री को संदूक में बंद कर उस पर दीपक जलाकर उसे गंगा में बहाकर लौट रहा था, उसी समय एक राजकुमार वहां से गुजर रहा था| उसने सेवकों से वह संदूक उठवा लिया| राजकुमार की आज्ञा से वह संदूक खोला गया|

संदूक के खुलते ही सबकी आंखें फटी-की-फटी रह गईं, उसके अंदर एक अनुपम सुंदरी बंद थी| उसकी आपबीती सुनकर राजकुमार ने उससे गंधर्व विवाह कर लिया| राजकुमार समझ गया कि इस युवती को प्राप्त करने के लिए ही धूर्त साधु ने बड़ी कुटिल चाल चली है, अत: उस धूर्त को इसका दंड अवश्य मिलना चाहिए – यह विचार कर उसने अपने सेवकों को आदेश दिया – “इस संदूक में एक खूंखार बंदर बंद कर दो और ऊपर दीपक जलाकर बहा दो!”

सेवकों ने राजकुमार की आज्ञा का पालन किया| संदूक में भयंकर बंदर रखकर उस पर दीपक जलाकर उसे गंगा की धारा में बहा दिया गया|

आगे साधु के शिष्य प्रतीक्षा कर ही रहे थे| उन्होंने नदी से संदूक निकाला और उसे अपने गुरु के पास ले गए| संदूक पाकर धूर्त साधु बड़ा प्रसन्न हुआ और शिष्यों से बोला – “अब तुम लोग जाओ| मैं इस संदूक से मंत्र सिद्ध करूंगा| मुझे पूर्ण एकांत और शांति की आवश्यकता है| मेरे अनुष्ठान में कोई बाधा न पहुंचे|”

शिष्यों के चले जाने पर अर्द्धरात्रि के एकांत में वैश्य-कन्या को पाने के लिए साधु महाराज ने संदूक खोला तो उसमें से वह भयंकर बंदर बाहर निकला और साधु पर टूट पड़ा| उसने साधु के कान काट डाले, नाक चबा ली और एक आंख भी फोड़ दी | किसी प्रकार स्वयं को बंदर से छुड़ाकर साधु अपने शिष्यों को पुकारने लगा| शिष्य दौड़े आए और अपने गुरुजी की दशा देखकर हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए|

दूसरी प्रात: जिसने भी इस विषय में सुना, मारे हंसी के उसी का बुरा हाल हो गया|

इसीलिए कहा गया है कि कभी-कभी कुटिल व्यक्ति भी अपने बनाए हुए जाल में स्वयं भी फंस जाते हैं| अत: आदमी को कभी भी कुटिलता नहीं करनी चाहिए|