धर्मराज को श्राप
एक धर्मात्मा ब्राह्मण थे, उनका नाम मांडव्य था| वे बड़े सदाचारी और तपोनिष्ठ थे| संसार के सुखों और भोगों से दूर वन में आश्रम बनाकर रहते थे| अपने आश्रम के द्वार पर बैठकर दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर तप करते थे| वन के कंद-मूल-फल खाते और तपमय जीवन व्यतीत करते| तप करने के कारण उनमें प्रचुर सहनशक्ति पैदा हो गई थी|
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प्रभात के पश्चात का समय था| आकाश में पक्षी चहचहाते हुए घूम रहे थे| मांडव्य अपने आश्रम के द्वार पर बैठकर भुजाओं को ऊपर उठाए हुए तप में संलग्न थे| सहसा नगर की ओर से आकर कुछ चोर मांडव्य के पास खड़े हो गए| मांडव्य आंखें बंद किए हुए बैठे थे| चोरों के पास चोरी का धन भी था| वे इधर-उधर देखने लगे, अपने छिपने के लिए उचित स्थान ढूंढ़नें लगे| चारों ओर मांडव्य का आश्रम सूना दिखाई पड़ा| उन्होंने सोचा, क्यों न आश्रम के भीतर छिपकर बैठा जाए|
बस, फिर क्या था, चोर आश्रम में छिपकर बैठ गए| उन्होंने चोरी का सारा धन भी आश्रम के भीतर ही छिपाकर रख दिया| चोरों के पीछे-पीछे राजा के सैनिक भी मांडव्य के पास उपस्थित हुए| उन्होंने मांडव्य से पूछा, “मुनिश्रेष्ठ, क्या यहां कुछ चोर आए थे? वे किस ओर गए हैं?” किन्तु मांडव्य मौन रहे| उन्होंने सैनिकों के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दिया| उनके मौन से सैनिकों के मन में संदेह पैदा हो गया| उन्होंने सोचा – हो न हो, यह तपस्वी भी चोरों से मिला हुआ है|
सैनिक आश्रम के अंदर घुस गए| भीतर जाकर वे चोरों और चोरी के माल को ढूंढ़ने लगे| आश्रम के भीतर छिपकर बैठे हुए चोर तो मिल ही गए, चोरी का माल भी मिल गया| अब सैनिकों के मन में बिलकुल संदेह नहीं रहा| उन्होंने निश्चित रूप से समझ लिया कि अवश्य तपस्वी भी चोरों से मिला हुआ है| अत: चोरों के साथ मांडव्य को भी बंदी बनाकर राजा के सामने पेश किया| राजा ने सबकुछ सुनकर चोरों के साथ-ही-साथ मांडव्य को भी शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दे दी|
राजा की आज्ञा से चोरों के साथ मांडव्य को भी शूली पर चढ़ा दिया गया| चोर तो शूली पर चढ़ाए जाने के तुरंत बाद ही मर गए, किंतु मांडव्य शूली पर भी जीवित रहे और तप करते रहे|
धीरे-धीरे कई महीने बीत गए, किंतु मांडव्य बिना खाए-पिए ही शूली पर जीवित रहे| जब यह समाचार राजा के कानों में पड़ा तो वे मांडव्य के पास उपस्थित हुए और श्रद्धा प्रकट करते हुए बोले, “मुनिश्रेष्ठ ! मैं निरपराध हूं| मुझे आपके संबंध में कुछ भी पता नहीं था|”
मांडव्य ने उत्तर दिया, “हां, राजन ! तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है| मैंने पूर्वजन्म में कोई ऐसा पाप किया था जिसके कारण मुझे यह दुख भोगना पड़ रहा है|”
राजा ने मांडव्य को शूली से नीचे उतारा| उन्होंने उनके शरीर में चुभे हुए शूलों को निकालने का प्रयत्न किया, पर आधे शूल तो बाहर निकले, आधे भीतर ही टूट कर रह गए| फिर भी मांडव्य जीवित रहे| आधे शूल भीतर रहने के कारण लोग उन्हें अणि मांडव्य कहने लगे|
अणि मांडव्य रात में सभी मुनियों को पक्षियों के रूप में बुलाते और उनसे पूछते कि मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया है, जिसके कारण मुझे यह कष्ट भोगना पड़ रहा है? पर किसी भी मुनि या तपस्वी ने उनके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया| उन्होंने उसी अवस्था में शरीर का त्याग कर दिया|
मांडव्य ने स्वर्ग में धर्मराज के पास जाकर उनसे पूछा, “मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था, जिसके कारण मुझे अपार कष्ट झेलने पड़े?”
धर्मराज ने कहा, “तुमने एक सींक से तीन पतिंगों की हत्या कर दी थी| उसी के कारण तुम्हें यह कष्ट झेलना पड़ा है|”
मांडव्य ने पुन: दूसरा प्रश्न किया, “मैंने सींकों से जिस समय पतिंगों की हत्या की थी, उस समय मेरी क्या अवस्था थी?
धर्मराज ने उत्तर दिया, “उस समय तुम्हारी अवस्था आठ- नौ वर्ष की थी|”
मांडव्य ने पुन: कहा, “शास्त्रों में लिखा है कि बारह वर्ष की अवस्था तक बालक अबोध होता है| उस समय तक जो भी पाप वह करता है, वह क्षमा के योग्य होता है| तुमने मुझे जो दण्ड दिया था वह शास्त्र के विरुद्ध है| अत: मैं भी तुम्हें श्राप देता हूं – तुम्हें मृत्युलोक में शुद्र के घर जन्म लेना पड़ेगा|”
मांडव्य का शाप सत्य सिद्ध हुआ| उनके श्राप के ही कारण धर्मराज ने विदुर के रूप में दासी के गर्भ से जन्म धारण किया था| विदुर भगवान के भक्त थे, ऊंचे विचारों के थे और पांडवों के बड़े हितैषी थे| किंतु यह बात तो सत्य है ही कि वे नीच कुल के समझे जाते थे|