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मित्र की सलाह

दुर्गादास था तो धनी किसान; किन्तु बहुत आलसी था| वह न अपने खेत देखने जाता था, न खलिहान| अपनी गाय-भैंसों की भी वह खोज-खबर नहीं रखता था| सब काम वह नौकरों पर छोड़ देता था|

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उसके आलस और कुप्रबन्ध से उसके घर की व्यवस्था बिगड़ गयी| उसको खेती में हानि होने लगी| गायों के दूध-घी से भी उसे कोई अच्छा लाभ नहीं होता था|

एक दिन दुर्गादास का मित्र हरिश्चंद्र उसके घर आया| हरिश्चंद्र ने दुर्गादास के घर का हाल देखा| उसने यह समझ लिया कि समझाने से आलसी दुर्गादास अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा| इसलिये उसने अपने मित्र दुर्गादास की भलाई करने के लिये उससे कहा- ‘मित्र! तुम्हारी विपत्ति देखकर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है| तुम्हारी दरिद्रता को दूर करने का एक सरल उपाय मैं जानता हूँ|’

दुर्गादास- ‘कृपा करके वह उपाय तुम मुझे बता दो| मैं उसे अवश्य करूँगा|’

हरिश्चंद्र- ‘सब पक्षियों के जागने से पहले ही मानसरोवर रहने वाला एक सफेद हंस पृथ्वी पर आता है| वह दो पहर दिन चढ़े लौट जाता है| यह तो पता नहीं कि वह कब कहाँ आवेगा; किन्तु जो उसका दर्शन कर लेता है, उसको कभी किसी बात की कमी नहीं होती|’

दुर्गादास- ‘कुछ भी हो, मैं उस हंस का दर्शन अवश्य करूँगा|’

हरिश्चंद्र चला गया| दुर्गादास दूसरे दिन बड़े सबेरे उठा| वह घर से बाहर निकला और हँस की खोज में खलिहान में गया| वहाँ उसने देखा कि एक आदमी उसके ढेर से गेहूँ अपने ढेर में डालने के लिये उठा रहा है| दुर्गादास को देखकर वह लज्जित हो गया और क्षमा माँगने लगा|

खलिहान से वह घर लौट आया और गोशाला में गया| वहाँ का रखवाला गाय का दूध दुहकर अपनी स्त्री के लोटे में डाल रहा था| दुर्गादास ने उसे डांटा| घरपर जलपान करके हंस की खोज में वह फिर निकला और खेत पर गया| उसने देखा कि खेत पर अबतक मजदूर आये ही नहीं थे| वह वहाँ रुक गया| जब मजदूर आये तो उन्हें देर से आने का उसने उलाहना दिया| इस प्रकार वह जहाँ गया, वहीं उसकी कोई-न-कोई हानि रुक गयी|

सफेद हंस की खोज में दुर्गादास प्रतिदिन सबेरे उठने और घुमने लगा| अब उसके नौकर ठीक काम करने लगे| उसके यहाँ चोरी होनी बंद हो गयी| पहिले वह रोगी रहता था, अब उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया| जिस खेत से उसे दस मन अन्न मिलता था, उससे अब पचीस मन मिलने लगा| गोशाला से दूध बहुत अधिक आने लगा|

एक दिन फिर दुर्गादास का मित्र हरिश्चंद्र उसके घर आया| दुर्गादास ने कहा- ‘मित्र! सफेद हंस तो मुझे अब तक नहीं दिखा; किन्तु उसकी खोज में लगने से मुझे लाभ बहुत हुआ है|’

हरिश्चंद्र हँस पड़ा और बोला- ‘परिश्रम करना ही वह सफेद हंस है| परिश्रम के पंख सदा उजले होते हैं| जो परिश्रम न करके अपना काम नौकरों पर छोड़ देता है, वह हानि उठाता है और जो स्वयं करता है, वह सम्पत्ति और सम्मान पाता है|’