डाल ने पेड़ की टहनी के संग मनाया बसंत
एक कुसुमित डाल ने अपने पड़ोस की टहनी से कहा- आज का दिन तो बिल्कुल नीरस लग रहा है। क्या तुम्हें भी ऐसा ही महसूस हो रहा है? उस टहनी ने उत्तर दिया- नि:संदेह यही बात मुझे भी लग रही है। उसी समय उस टहनी पर एक चिरौटा आ बैठा और उसके निकट ही एक दूसरा चिरौटा भी आ गया।
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पहले चिरौटे ने चहचहाते हुए कहा- आज मेरी पत्नी मुझे छोड़कर चली गई। मैं भी उसको मनाने नहीं जाने वाला। दूसरे चिरौटे ने भी जरा जोर से कहा- मेरी पत्नी भी चली गई, जो अब वापस नहीं आने वाली और मुझे भी उसकी परवाह नहीं है। दोनों आपस में बतियाने और शोर मचाने लगे।
तभी दो चिड़ियां आकाश में उड़ती हुई उन पक्षियों के पास आकर बैठ गईं। शोर बंद हो गया और शांति स्थापित हो गई। फिर वे चारों अपने जोड़े बनाकर उड़ गए। तत्पश्चात उस डाल ने टहनी से कहा- यह तो कोलाहल का बवंडर सा था। तब टहनी बोली- इसे चाहे जो कहो, लेकिन अब तो सारा वातावरण शांत है।
यदि ऊपरी वायु शांत हो तो मेरा विश्वास है कि नीचे रहने वाले भी शांति बनाए रख सकते हैं। क्या तुम भी वायु के साथ झोंका लेकर मेरे निकट न आओगी। उस डाल ने कहा- ओह यह तो शांति प्राप्त करने का सुयोग है। कहीं ऐसा न हो कि बसंत बीत जाए। उसी समय वायु का एक झोंका आया और दोनों आलिंगनबद्ध हो गए।
कथा का गूढ़ार्थ यह है कि जहां प्रेम का साम्राज्य स्थापित हो जाता है, वहां शांति स्वत: ही आ जाती है। वस्तुत: प्रेम ऐसा उदात्त भाव है, जिससे दूरी, विवाद और वैमनस्य का अस्तित्व मिट जाता है और नैकट्य, सौहार्द और स्नेह की निराली त्रिवेणी प्रवाहित होने लगती है।