Homeशिक्षाप्रद कथाएँबुढ़िया की झोपड़ी

बुढ़िया की झोपड़ी

बुढ़िया की झोपड़ी

विक्रमादित्य न्यायप्रिय और प्रजा प्रेमी राजा थे| इसलिए उनसे न्याय करवाने के लिए देवता भी स्वर्गलोक से धरती पर आया करते थे| एक बार उन्होंने नदी के तट पर एक महल बनाने का आदेश दिया|

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मंत्री ने तुरंत कामगारों को काम पर लगा दिया, लेकिन एक समस्या आड़े आ गई| राजमहल के निर्माण-स्थल के समीप ही एक बुढ़िया की झोपड़ी थी, जिसके रहते राजमहल की शोभा बिगड़ रही थी|

मंत्री ने आकर सारी बात राजा को बता दी|

राजा ने उस बुढ़िया को बुलवाया और झोपड़ी के बदले धन देने का प्रस्ताव रखा| लेकिन बुढ़िया जिद्दी निकली|

वह बोली, ‘महाराज! क्षमा करे! आपका प्रस्ताव मुझे मंजूर नही है| यह झोपड़ी मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिये है| इसी झोपड़ी में मैंने तमाम उम्र गुज़ारी है| मेरा इससे बहुत अधिक लगाव है| मैं अपनी इसी झोपड़ी में प्राण त्यागना चाहती हूँ| यह मेरे स्वर्गीय पति की एकमात्र निशानी है|’

राजा ने कुछ देर तक सोच-विचार किया| फिर मंत्री से बोले, ‘कोई बात नही| इस झोपड़ी को मत तोड़ना| जब लोग इस शानदार महल और झोपड़ी को साथ-साथ देखेंगे तो कम-से-कम मेरे सौंदर्यबोध और न्यायप्रियता की प्रशंसा तो किया करेंगे|’


कथा-सार 

बड़ा व महान कोई भी व्यक्ति तभी बनता है, जब वह दूसरों के विचारों व भावनाओं का सम्मान करना जानता हो| इसमें छोटे-बड़े का कोई भेद नही होना चाहिए| राजा विक्रमादित्य चाहते तो बड़ी सरलता से बुढ़िया की झोपड़ी महल के पास से हटवा देते| परंतु तब कौन उन्हें महान व न्यायप्रिय कहता?