भावना का सम्मान
पुराने जमाने की बात है। एक शहर में दो व्यापारी आए। इनमें से एक घी का कारोबार करता था, तो दूसरा चमड़े का व्यापार करता था। संयोग से दोनों एक ही मकान में पहुंचे और शरण मांगी। मकान मालिक ने रात होने पर घी वाले व्यापारी को भीतर सुलाया और चमड़े वाले को बाहर बरामदे में।
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दूसरे दिन वे माल खरीदने गए। उस रात मकान मालिक ने चमड़े वाले को भीतर सुलाया और घी वाले को बाहर। इस पर दोनों व्यापारी बेहद चकित हुए। उन्होंने जब इसका कारण पूछा तो मकान मालिक ने कहा, ‘मैं अतिथि की भावना के अनुसार उसके साथ व्यवहार करता हूं। माल खरीदते जाते समय आप दोनों चाहते थे कि माल सस्ता मिले। घी तभी सस्ता मिल सकता है जब देश में खुशहाली हो लेकिन चमड़ा तभी सस्ता मिल सकता है जब अधिक पशुओं की हत्या हो। इसलिए मैंने घी के व्यापारी को भीतर सुलाया और चमड़े के व्यापारी को बाहर।
परंतु लौटकर आने पर आप दोनों की स्थिति में अंतर हो गया। आप दोनों चाहते थे कि माल महंगा बिके तो अधिक मुनाफा हो। घी-दूध की कमी होने से ही घी महंगा हो सकता है। देश में दूध-दही और घी के अभाव की कामना तो दुर्भावना है। चमड़ा तभी महंगा हो सकता है जब पशु हत्या कम हो। यह अहिंसक भावना अच्छी है। इसलिए लौटते समय आज आपकी स्थिति के अनुरूप ही स्थान में परिवर्तन करके सुलाया गया।’ दोनों व्यापारी इस विश्लेषण से दंग रह गए। मकान मालिक ने फिर कहा, ‘ठीक है कि आप लाभ के लिए ही सब कुछ कर रहे हैं पर मनुष्यता को दरकिनार करके व्यापार करने का कोई अर्थ नहीं है।’ उन व्यापारियों के ऊपर उस व्यक्ति की बातों का गहरा असर पड़ा। उन्होंने लौटते हुए इस पर आपस में बातचीत की और यह तय किया कि वे अपने भाव को सुधारेंगे। भले ही लाभ हो या न हो या कम हो, पर वे अपनी मंशा साफ रखेंगे।