भाग्य की प्रबलता
कांतिनगर के राजा देवशक्ति के शासन में प्रजा काफ़ी खुशहाल और सम्पन्न थी| लेकिन राजा काफ़ी दुखी था क्योंकि उसके नन्हें और मासूम बेटे के पेट में न जाने कैसे एक साँप का बच्चा चला गया था| उस साँप के बच्चे को निकालने के लिए राजा ने बहुत से वैधों और चिकित्सकों से उपचार कराया लेकिन सफलता नही मिल पाई थी|
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राजा देवशक्ति का बेटा जैसे-जैसे बड़ा होता गया, वैसे-वैसे पेट में साँप की उपस्थिति उसे अधिक व्याकुल करने लगी|
उससे अपने माता-पिता का दुख सहन नही होता था, इसलिए उसने सोचा कि जब तक वह उनकी आँखों के सामने रहेगा वे दुखी ही रहेंगे| अतः एक दिन मौका पाकर राजकुमार ने राजमहल छोड़ दिया और रातों-रात किसी दूसरे देश में चला गया| वहाँ एक मंदिर के बाहर अपना रहने का ठिकाना बनाकर वह भिक्षा माँगकर अपना पेट पालने लगा|
राजकुमार ने जिस देश में अपना डेरा डाला था, उस देश के राजा की फूल समान दो सुंदर कन्याएँ थी| लेकिन उन दोनों कन्याओं का स्वभाव भिन्न था| बड़ी बेटी यह मानती थी कि वह अपने पिता की कृपा से सुख भोग रही है| स्वयं राजा का भी यह मानना था कि उसकी पुत्रियाँ ही नही बल्कि पूरी प्रजा उसी की कृपा पर आश्रित है| राजा अपनी बड़ी बेटी से काफ़ी प्रसन्न रहता था| कुछ समय बाद राजा ने उसका विवाह एक राजकुमार के साथ कर दिया|
राजा की छोटी बेटी कामिनी का व्यवहार और सोच अपनी बड़ी बहन से काफ़ी भिन्न था| उसका मानना था कि वह अपने पिता की कृपा से सुख नही भोग रही बल्कि उसका भाग्य व कर्म इसका कारण है| कामिनी के इस व्यवहार से राजा काफ़ी रुष्ट था| अतः उसे दंडित करने की मंशा से उसने उसका विवाह नगर के बाहर मंदिर के पास रहने वाले भिक्षुक से कर दिया| राजकुमारी ने भिक्षुक को अपना कर्मफल मानते हुए उसे पति रूप में स्वीकार कर लिया|
विवाह के कुछ दिन पश्चात राजकुमारी ने अपने पति के साथ किसी अन्य राज्य में जाकर रहने और वहाँ पति को किसी काम पर लगाने का निश्चय कर लिया| अगले दिन प्रातकाल कामिनी अपने पति के साथ किसी अन्य नगर की ओर चल दी| यात्रा करते-करते दोपहर हो गई तो दोनों एक नदी के तट पर स्थित बड़े-से वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करने लगे| कुछ देर बाद विश्राम करने के बाद कामिनी ने कहा- ‘आप यही विश्राम करे, मैं कुछ भोजन-पानी का प्रबंध करके लाती हूँ|’
काफ़ी देर तक यात्रा करते रहने के कारण राजकुमार थक गया था, इसलिए वह लेट गया और कुछ ही देर में उसे नींद आ गई|
जब कामिनी लौटकर आई तो सामने देख उसकी आँखे आश्चर्य की अधिकता से फटती चली गई- भिक्षुक सो रहा था और उसके मुहँ के भीतर से सर्प हवा खाने के लिए अपना मुहँ बाहर निकाले हुए था| समीप ही रेत का टीला था, उसके पास ही बिल बनाकर रहनेवाला सर्प भी हवा खाने निकला हुआ था| भिक्षुक बने राजकुमार के मुहँ से झाँकते सर्प से कहा- ‘तुमने एक मानव के पेट में घुसकर उसका जीवन नर्क क्यों बना रखा है?’
‘तुमने राजकोष को गंदा क्यों कर रखा है?’ पेटवाले साँप ने क्रोधित हो बिल वाले साँप से कहा|
शायद किसी को यह बात मालूम नही है कि पुरानी कांजी और काली सरसों को पिसकर गर्म जल के साथ पी लेने से तुम्हारी मृत्यु हो सकती है|’ बिल वाले साँप ने अत्यधिक क्रोध में कहा|
‘और शायद किसी को यह भी मालूम नही कि गर्म और खौलते तेल को तुम्हारे बिल में डालने से तुम भी मर सकते हो|’ पेट वाला साँप क्रोधवश फुँफकार बोला|
दोनों सर्पों का वार्तालाप सुनने के बाद राजकुमारी उन दोनों की मृत्यु का गुप्त रहस्य जान गई और उन्हीं के बताए उपायों से दोनों सर्पों को मार डाला| इससे उसका पति स्वस्थ हो गया और दूसरी ओर उसे राजकोष भी प्राप्त हो गया|
कथा-सार
एक-दूसरे के गुप्त रहस्यों को उजागर करने से दोनों ही पक्षों की हानि होती है| जैसे बातों-ही-बातों में दोनों सर्प क्रोध में आ गए और अपनी मृत्यु का रहस्य खोल बैठे| वे भूल गए थे कि दीवारों के भी कान होते है| भाग्य और परिश्रम से इंसान के सारे दुख दूर हो जाते हैं|