बाप सेर तो बेटा सवा सेर
प्राचीन काल में उज्जयिनी नामक नगरी में मूलदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था| वह बहुत विद्वान एवं चतुर था| उसने शास्त्रार्थ में कई पंडितों एवं विद्वानों को परास्त कर रखा था| इसी कारण वह वेदों एवं शास्त्रों का प्रकांड पंडित माना जाने लगा था|
“बाप सेर तो बेटा सवा सेर” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio
मूलदेव का एक घनिष्ठ मित्र था| उसका नाम था – शशि| एक दिन शशि उसके पास एक सुझाव लेकर आया| उसने मूलदेव से कहा – “मूलदेव! तुम भाषण देने की कला में प्रवीन हो| तुम्हारा नाम दूर-दूर तक फैल चुका है| क्यों न हम दोनों पाटलिपुत्र चलें और वहां पहुंचकर ख्याति कमाएं?”
“सुझाव तो बहुत अच्छा है, मित्र!” मूलदेव बोला – “मैंने भी उस नगर के बारे में बहुत कुछ सुन रखा है| कहते हैं कि वह विद्वान लोगों का नगर है| मैं वहां के बुद्धिमान और शालीन लोगों की बुद्धि-परीक्षा भी कर सकता हूं|”
अगले दिन दोनों मित्र पाटलिपुत्र की ओर चल पड़े| जब वे नगर की सीमा में पहुंचे तो उन्हें नदी के किनारे एक स्त्री कपड़े धोते हुए दिखाई दी|
शशि कहने लगा — “मित्र! चलो, इसी स्त्री के पास चलकर इससे नगर में ठहरने के लिए किसी उचित स्थान का पता लगाते हैं|”
“ठीक कहते हो, मित्र!” मूलदेव ने भी सहमति जताई – “यह तो हमारी पहली जरूरत है|”
दोनों उस स्त्री के पास पहुंचे|
शशि ने उस स्त्री से पूछा – “देवी! क्या तुम हमें बता सकती हो कि यहां यात्रियों के ठहरने का स्थान कहां है?”
स्त्री बोली – “मैं यह तो जानती हूं कि बत्तखें समुद्र तट पर, मछली जल में, भंवरे कमल पुष्प में रहते हैं, पर यात्री कहां ठहरते हैं, यह मैं बिल्कुल नहीं जानती|”
स्त्री का उत्तर सुनकर दोनों मित्र एक-दूसरे का मुंह देखने लगे, फिर शशि बोला – “कुछ समझे मित्र! यह स्त्री कह रही है कि इसी यात्रियों के ठहरने के स्थान के बारे में कुछ नहीं मालूम!”
“अजीब स्त्री है|” मूलदेव कुछ खीझ भरे स्वर में बोला – “हमने तो इससे एक सीधा-सा प्रश्न पूछा था और इसने मछली, बत्तख और भंवरे की कहानी सुना डाली| यह सीधे-सादे ढंग से भी मना कर सकती थी|”
“चलो, आगे चलते हैं| आगे चलकर किसी अन्य व्यक्ति से पता पूछेंगे|”
दोनों मित्र आगे बढ़ चले|
कुछ आगे चलकर उन्हें एक मकान के बाहर दरवाजे पर बैठा एक बालक दिखाई दिया| उसके सामने गर्म भात की थाली रखी हुई थी| वह बालक थाली की ओर देखता हुआ रो रहा था| उसे देखकर शशि कहने लगा – “मूलदेव! इस मूर्ख बालक को तो देखो| इसके सामने इतना स्वादिष्ट और ताजा भोजन रखा हुआ है, फिर भी यह उस भोजन को खाने की बजाय सिर्फ रोए जा रहा है|”
“ठीक कहते हो मित्र! सचमुच यह बालक मूर्ख ही है| भला इतने स्वादिष्ट भोजन को पाकर भी कोई रोता है?” मूलदेव ने शशि की बात से सहमत होते हुए कहा|
उन दोनों की बात सुनकर बालक खिल-खिलाकर हंस पड़ा| यह देखकर दोनों चौंक पड़े| बालक बोला – “मूर्ख मैं नहीं, मूर्ख तो तुम दोनों हो, जो इतना भी नहीं जानते कि मैं किसलिए रो रहा था! मुझे खाने के लिए भात ठंडा होने का इंतजार है| रोने से मेरा गला साफ हो जाएगा और फेफड़ों की कसरत भी हो जाएगी| जिससे खाना जल्दी पचेगा, पर तुम तो ठहरे ठेठ गंवार| तुम जैसे देहाती इस बात को भला कैसे समझ पाएंगे?”
दोनों मित्र बालक की चतुराई पर हैरान रह गए| शशि कहने लगा – “मित्र! यहां तो एक से बढ़कर एक मिल रहे हैं| पहले उस कपड़े धोने वाली स्त्री ने संकेत से बात की और अब यह बालक हमें बुद्धू ठहरा रहा है| लगता है आगे चलकर इससे भी ज्यादा बुद्धिमान व्यक्तियों से मुलाकात होने वाली है|”
“अरे छोड़ो|” मूलदेव ने मुंह बिचकाकर कहा – “मुझे तो यह बालक ढीठ मालूम होता है| चलो आगे चलकर किसी अन्य व्यक्ति से पता करते हैं|”
चलते-चलते दोनों एक बाग के समीप पहुंचे| वहां उन्हें एक युवती एक आम के वृक्ष पर चढ़ी आम तोड़ती हुई दिखाई दी|
शशि ने मूलदेव से कहा – “क्या विचार है मित्र! इस स्त्री के पास चलकर इससे कुछ आम अपने लिए भी मांग लें?”
“हां-हां, क्यों नहीं|” मूलदेव ने सहमति जताई – “पके हुए आम तो मुझे बहुत प्रिय हैं|”
कुछ ही देर में दोंनो वृक्ष के नीचे पहुंचे| शशि ने वृक्ष के ऊपर चढ़ी हुई युवती से कहा – “सुंदरी! थोड़े-से आम हमें भी दे दो|”
युवती ने पूछा – “कैसे आम चाहिए आप लोगों को, ठंडे या गर्म?”
यह सुनकर दोनों एक-दूसरे का मुंह देखने लगे|
शशि ने मूलदेव को टहोका – “मूलदेव! उत्तर दो न भाई|”
“पहले कुछ गर्म आप ही दे दो|” मूलदेव ने कहा
युवती ने कुछ पके आम नीचे फेंक दिए| मूलदेव और शशि ने धूल में गिरे आम उठाए| फूंक मारकर उनकी धूल उड़ाई और आम खाने लगे| जब वे दोनों आम खा चुके तो वृक्ष पर चढ़ी हुई युवती ने उनसे पूछा – “मैंने तुम दोनों को आमों पर फूंक मारते देखा था| क्या वे सचमुच में बहुत गर्म थे? तुम चाहते तो अपनी सांसें बचा सकते थे|”
कुछ देर बाद युवती की बात का अर्थ उन दोनों की समझ में आया| पास में ही सरोवर था, वे चाहते तो उन आमों को जल में धोकर साफ करके खा सकते थे| इस प्रकार उन्हें ठंडे आम खाने को मिल जाते| बात का अर्थ समझ में आते ही मूलदेव ने स्वयं को बहुत लज्जित-सा महसूस किया, साथ ही एक प्रकार की कुंठा उसके मन में पैदा हो गई|
मूलदेव ने शशि से कहा – “शशि! यह स्त्री अब तक मिले सभी लोगों से अधिक बुद्धिमान है| मैंने तो निश्चय कर लिया है कि इसी से विवाह करूंगा और फिर इसे सबक सिखाऊंगा|”
यह सुनकर शशि कहने लगा – “मूलदेव! जहां तक इस युवती से तुम्हारे विवाह का प्रश्न है, मैं तुमसे सहमत हूं| ऐसी विदुषी युवती तुम्हारी जीवनसंगिनी बने, इससे मुझे प्रसन्नता होगी, किंतु विवाह के उपरांत तुम जो उसे सबक सिखाने की बात कर रहे हो, उससे मैं तनिक भी सहमत नहीं हूं| अच्छा बताओ तो क्या अपराध किया है उसने, जो तुमने उसके लिए अभी से ऐसी कड़ी सजा सोच ली है?”
“उसका अपराध यही है कि उसने हमें मूर्ख समझा| उसने संकेतों से बात की| वह सीधे-सादे ढंग से यह भी तो बता सकती थी कि पहले आमों को नदी के जल में धो लो, फिर उनका उपभोग करना|”
शशि बोला – “मूलदेव! तुम्हारी यह बात कुछ जमी नहीं| तुम कहते हो कि वह युवती बुद्धिमान है, तो भाई मेरे बुद्धिमान लोग तो संकेत के द्वारा ही सारी बात समझा दिया करते हैं| यह तो समझने वाले व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह कितना समझा है| जो समझ गया वह बुद्धिमान और जो न समझा उसे तो मंद बुद्धि ही कहा जाएगा|”
“तुम कुछ भी समझो| मैं यह कार्य अवश्य करके रहूंगा| मैं इस युवती को अपनी हंसी उड़ाने की सजा अवश्य दूंगा|” मूलदेव ने जिद की|
“जैसी तुम्हारी इच्छा|” शशि ने कंधें उचकाकर कहा – “अब यह बताओ, आगे का क्या कार्यक्रम है?”
“ठहरने के स्थान का बाद में प्रबंध कर लेंगे| पहले तुम एक काम करो|” मूलदेव बोला|
“कौन-सा काम?”
“इस स्त्री के पीछे-पीछे जाकर इसके घर का पता मालूम करो| घर का पता चल गया तो मैं कोई-न-कोई उपाय सोच लूंगा, इससे विवाह करने का|”
“ठीक है, तुम यहीं मेरी प्रतीक्षा करना| मैं इस स्त्री का पता मालूम करके शीघ्र लौटूंगा|”
उस युवती ने अब तक बहुत-से आम तोड़ लिए थे, उसने वे आम एक टोकरे में एकत्र किए और निश्चिंत भाव से अपने घर की ओर चल पड़ी| कुछ पीछे रहकर शशि भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा|
एक घंटे बाद शशि वापस लौटा| उसने मूलदेव के पास पहुंचकर उसे बताया – “वह युवती यज्ञस्वामी नाम के एक ब्राह्मण की बटी है| यहां से कुछ ही दूर उसका मकान है| मैं भली प्रकार से उसका मकान देख आया हूं|”
“बढ़िया! अब बनाते हैं कोई योजना|”
वह रात उन दोनों ने एक आश्रय-स्थल (सराय) में व्यतीत की| वहां उन्होंने ब्राह्मणों का वेश धारण किया और यज्ञस्वामी के घर की ओर चल पड़े| दोनों यज्ञस्वामी के घर के बाहर पहुंचे और उसके दरवाजे से कुछ हटकर बैठ गए| वहां उन्होंने जोर-जोर से वेद के श्लोकों का उच्चारण करना आरंभ कर दिया|
कुछ ही देर बाद यज्ञस्वामी घर से बाहर निकला और उन दोनों की ओर देखते हुए मन-ही-मन सोचने लगा – ‘ये दोनों बहुत विद्वान ब्राह्मण लगते हैं| इन्हें अपने घर आमंत्रित करना चाहिए|’
ऐसा सोचकर वह मूलदेव और शशि के पास पहुंचा और उनसे पूछा – “महाशय! आप इस नगर के रहने वाले नहीं लगते| कहां से पधारे हैं आप दोनों?”
मूलदेव ने बड़ी शालीनता से उत्तर दिया – “हम दोनों मायापुरी नगर से आए हैं| हमारा यहां आने का उद्देश्य प्राचीन विद्या का अध्ययन करना है|”
“मायापुरी तो बहुत दूर है, इतनी दूरी तय करने में तो आपको बहुत कष्ट हुआ होगा!” यज्ञस्वामी सहानुभूति दिखाते हुए उन दोनों से बोला|
“कुछ विशेष कष्ट नहीं हुआ|” इस बार शशि ने उत्तर दिया – “और फिर कुछ प्राप्त करने के लिए कुछ त्याग एवं कष्ट तो उठाना ही पड़ता है विप्रवर!”
उसके उत्तर से प्रभावित होकर यज्ञस्वामी बोला – “अगर आपको बुरा न लगे तो मैं एक बात कहूं?”
“अवश्य कहिए|”
“वर्षाकाल आरंभ हो चुका है| मेरा आपसे आग्रह है कि इस वर्षाकाल के चार महीने आप मेरे यहां अतिथि बनकर व्यतीत करें|”
‘अंधा क्या चाहे दो आंखें|’ मूलदेव यही तो चाहता था, किंतु प्रकटत: उसने यज्ञस्वामी से कहा – “महाशय! हम आपके यहां केवल एक शर्त पर ठहर सकते हैं और वह शर्त यह है कि चार महीने बीतने पर हम जो वस्तु आपसे मांगें, वह आपको देनी पड़ेगी|”
“हां-हां, अवश्य!” यज्ञस्वामी बोला – “जो कुछ देने योग्य हुआ, उसे मैं आपको अवश्य उपहारस्वरूप भेंट करूंगा|”
इस प्रकार मूलदेव और शशि यज्ञस्वामी के घर में रहने लगे| वे दोनों कई बार यज्ञस्वामी की कन्या से मिले, किंतु बदले हुए वेश में वह उन्हें पहचान न सकी और पिता की आज्ञानुसार यथासंभव उन दोनों की सेवा करती रही|
इस प्रकार यज्ञस्वामी के घर में रहते हुए जब चार महीने का समय बीत गया तो एक दिन मूलदेव ने कहा – “महाशय! आपके यहां रहते हुए चार महीने का समय बीत गया| इस बीच आपने तथा आपकी कन्या ने हमारी जो सेवा शुश्रूषा की, उसके लिए हम आभार प्रकट करते हैं और अब जाने की आज्ञा चाहते हैं|”
यह सुनकर यज्ञस्वामी का चेहरा उतर गया| वह बोला – “मूलदेव! सच कहता हूं, तुम दोनों मुझे बहुत ही भले व्यक्ति लगे हो| तुम्हारे सान्निध्य से मुझे भी बहुत आनंद प्राप्त होता है| तुम्हें विदा करने की जी तो नहीं चाहता, किंतु तुम्हारे पठन-पाठन में कोई व्यवधान न पड़े, इसलिए अब और ज्यादा दिन ठहरने का तुमसे आग्रह भी नहीं कर सकता|”
“विदा होने से पूर्व में आपको कुछ याद दिलाना चाहता हूं|” मूलदेव ने संकोच-सा जाहिर करते हुए कहा|
“समझ गया|” ब्राह्मण बोला – “मैंने तुम्हें उपहारस्वरूप कुछ देने के लिए वचन दिया था, तो मांगो मूलदेव! जो कुछ देने योग्य होगा, वह मैं तुम्हें अवश्य दे दूंगा|”
“अपनी पुत्री का विवाह मेरे साथ कर दीजिए|” मूलदेव ने बिना किसी लाग-लपेट के अपनी मांग प्रस्तुत कर दी|
यज्ञस्वामी उसकी यह मांग सुनकर हैरान रह गया| कुछ पल के लिए उसने अपने मन में विचार किया – ‘यह ब्राह्मण कुमार योग्य है, विद्वान है, इसके साथ मेरी बेटी सुखी रहेगी| इसकी न्यायोचित मांग को ठुकराना उचित नहीं है|’ ऐसा विचार करके उसने मूलदेव की मांग स्वीकार कर ली और अपनी बेटी का विवाह उसके साथ कर दिया|
विवाह के उपरांत जब पति-पत्नी एकांत में मिले तो मूलदेव ने अपनी पत्नी से कहा – “क्या तुमने मुझे पहचाना? नहीं पहचाना तो मैं तुम्हें याद दिला दूं कि मैं वही हूं, ठंडे-गर्म आम वाला, जिसे उस दिन तुमने मूर्ख बनाया था|”
मूलदेव की बात सुनकर उसकी पत्नी मुस्कराकर बोली – “शहरी बुद्धि को समझने में देहाती गंवारों को देर लगती ही है|”
पत्नी के मुंह से अपने प्रति किए इस व्यंग्य को सुनकर मूलदेव का चेहरा क्रोध से लाल हो उठा| वह भड़ककर बोला – “तुम स्वयं को बहुत विद्वान समझती हो न! अब देखना, मैं देहाती गंवार तुम्हें हमेशा के लिए छोड़कर यहां से बहुत दूर चला जाऊंगा और तुम शहरी बुद्धि जीवन-भर यहीं खीझती हुई रह जाओगी|”
मूलदेव की इस धमकी को सुनकर भी उसकी पत्नी के चेहरे पर डक के किसी प्रकार के भी लक्षण प्रकट न हुए| इसके विपरीत वह चुनौती भरे स्वर में बोली – “बेशक चले जाना, लेकिन मेरा दावा है कि लौटकर फिर मेरे पास ही आओगे और वह भी मेरे बच्चे के पिता बनकर|”
“अरी ओ मूर्ख स्त्री! जब मैं तुम्हारे साथ मिलन ही नहीं करूंगा तो मेरा बच्चा कैसे पैदा हो जाएगा? तुम एक मुंह-फट एवं बड़बोली स्त्री हो, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं| मैं भी देखता हूं कि तुम कैसे अपना कथन पूरा कर पाती हो?”
इस वाद-विवाद के बाद दोनों पति-पत्नी सो गए| रात्रि के अंतिम पहर में मूलदेव धीरे-से उठा| जेब से अपनी वह अंगूठी निकाली, जिस पर उसका नाम खुदा हुआ था और आहिस्ता-से पत्नी की उंगली में पहना दी, फिर वह दबे पांव घर से बाहर निकल आया| योजनानुसार शशि वहां पहले से ही उपस्थित था| दोनों तेजी से उज्जयिनी की ओर चल पड़े|
अगली सुबह जब मूलदेव की पत्नी जागी तो उसने अपनी पति को बिस्तर से गायब पाया| उसने घर के दूसरे कमरों में उसकी तलाश की, लेकिन जब वह उसे कहीं दिखाई न दिया तो वह समझ गई कि उसके पति ने अपनी धमकी पूरी कर ली है| वह उसे छोड़कर चला गया है| तब यह व्यथित होकर बैठ गई और विचार करने लगी कि किस प्रकार अपने पति को वापस लाया जाए|
अकस्मात उसकी निगाह अपनी उंगली में पहनी हुई अंगूठी पर पड़ी| अंगूठी पर मूलदेव का नाम खुदा देखकर एक विचार उसके मन में कौंध उठा – ‘इस अंगूठी पर उनका नाम खुदा है| साथ ही उनके शहर का नाम भी खुदा हुआ है| वे जरूर अपने नगर को ही गए होंगे| अब मैं वहां जाकर उन्हें बताउंगी कि मैं भी मजाक नहीं कर रही थी|’
ऐसा विचारकर वह अपने पिता के पास पहुंची और यज्ञस्वामी से कहा – “पिताजी! मेरे पति मेरा त्याग करके यहां से चले गए हैं| अब मैं यहां रहना नहीं चाहती| मैं तीर्थयात्रा पर जाना चाहती हूं, ताकि इस अप्रिय घटना को भुला सकूं|”
पिता अपनी बेटी की मानसिक व्यथा को समझ गया| उसके पास धन की तो कोई कमी थी ही नहीं, अत: उसने अपनी बेटी को पर्याप्त धन देकर उसे जाने की आज्ञा प्रदान कर दी| मूलदेव की पत्नी काफी मात्रा में धन और सेवक-सेविकाओं के साथ एक डोली में बैठकर उज्जयिनी की ओर चल पड़ी|
रास्ते में एक नगर में रुककर उसने नर्तकियां जिस प्रकार की पोशाकें पहनती हैं, उस प्रकार की अनेक पोशाकें खरीद लीं| नर्तकियों की पोशाक में सज्जित होकर वह खूब ठाठ-बाट से उज्जयिनी जा पहुंची| उसका ऐसा ठाठ-बाट देखकर नगरवासी उसे कोई राजकुमारी समझ बैठे| नगर में पहुंचकर उसने नगर से बाहर अपना शिविर लगाया| उसने सेवक और सेविकाओं को आदेश दे दिया कि वे नगर में घूम-घूमकर उसके सौंदर्य की प्रशंसा करें| साथ आए सेवक और सेविकाएं उज्जयिनी के गली-मोहल्लों में घूम-घूमकर उसके सौंदर्य की प्रशंसा करने लगे|
मूलदेव की पत्नी के रूप की प्रशंसा सुनकर एक दिन नगर की सबसे मशहूर नर्तकी देवदत्ता उसके पास पहुंची और उससे पूछा – “बहन! तुम्हारा नाम क्या है? तुम किस नगर की रहने वाली हो?”
“मेरा नाम सुमंगला है, बहन!” मूलदेव की पत्नी ने अपना नाम बताया – “मैं कामरूप नगर से यहां आई हूं| मैंने अपने नगर में उज्जयिनी की महान संस्कृति की चर्चा सुनी थी, उसी को जानने के लिए मैं यहां आई हूं|”
“यह तो तुमने बहुत अच्छा किया| मैंने तुम्हारी नृत्य की बहुत तारीफ सुनी है, इसलिए तुमसे मिलने यहां आई हूं| मेरा नाम देवदत्ता है| मैं भी एक नर्तकी हूं|” देवदत्ता ने स्वयं ही अपना परिचय दे डाला|
मूलदेव की पत्नी ने देवदत्ता का स्वागत किया| वह उसे अपने कक्ष में ले गई और अनेक प्रकार उसे सम्मान दिया| देवदत्ता उसके व्यवहार से बहुत प्रभावित हुई| उसने सुमंगला से कहा – “बहन! यहां शिविर में रहना ठीक नहीं लगता| तुम चाहो तो मैं तुम्हारे अनुरूप तुम्हारे ठहरने के लिए किसी उत्तम आवास की व्यवस्था कर सकती हूं|”
सुमंगला ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया| तब देवदत्ता उसे अपने साथ लिवा लाई और अपना एक शानदार महल उसे रहने के लिए दे दिया|
सुमंगला की मोहकता और सुंदरता की चर्चा शशि के कानों तक भी पहुंची| वह उससे मिलने के लिए आतुर हो उठा| उसने अपने एक दूत को कीमती उपहार देकर सुमंगला के पास भेजा, जिससे कि वह सुमंगला से मिलने की अनुमति प्राप्त कर सके|
दूत सुमंगला के पास पहुंचा| उसने सुमंगला से कहा – “देवी! मेरे स्वामी ने आपको नमस्कार कहा है और ये उपहार भी भेजे हैं|”
सुमंगला बोली – “अपने स्वामी से जाकर कह दो कि मैं उपहारों को अधिक महत्त्व नहीं देती| उनको नमस्कार के लिए धन्यवाद कहना| ये भी कहना कि वे स्वयं यहां आकर मुझे दर्शन दें तो अच्छा रहेगा|”
दूत ने शशि के पास लौटकर उसे सारी बातें बता दीं| तब रात के समय उत्तर वस्त्र धारण कर शशि सुमंगला से मिलने के लिए चल पड़ा|
जब वह महल के पहले दरवाजे पर पहुंचा तो एक महिला द्वारपाल ने उसे अंदर जाने से रोक दिया| उसने कहा – “महाशय! आपने घर पर स्नान किया होगा, पर अंदर प्रवेश करने से पहले यहां आपको फिर से स्नान करना पड़ेगा| अन्यथा आप अंदर नहीं जा सकते|”
‘अजीब नियम है|’ शशि ने सोचा, लेकिन चूंकि वह सुमंगला से मिलना चाहता था, अत: उसने स्नान करना स्वीकार कर लिया| सेविका उसे एक सुसज्जित स्नानगृह में ले गई| वहां दूसरी महिला सेविकाओं ने उसकी सेवा की| शशि ने जब तक स्नान पूरा किया, तब तक रात का एक पहर बीत गया|
बन-संवरकर शशि दूसरे द्वार पर पहुंचा| वहां एक अन्य सेविका ने उसे अंदर जाने से रोक दिया| वह बोली – “ठहरिए महाशय! हमारी स्वामिनी के पास आप तभी जा सकते हैं, जब आपने विशेष पोशाक पहनी हुई हो| कृपया पीछे के कक्ष में एक बार फिर से जाइए और विशेष पोशाक पहनकर आइए|”
शशि वापस स्नान कक्ष में लौट आया, सेविकाओं ने उसे विशेष पोशाक पहना दी| इस प्रक्रिया में रात का दूसरा पहर भी बीत गया|
तीसरे द्वार पर उसे स्वादिष्ट भोजन करने के लिए कहा गया| इससे शशि को और भी देरी हो गई और रात का तीसरा पहर भी समाप्त हो गया|
जब शशि सुमंगला से मिलने उसके निजी कक्ष में जाने वाले चौथे और आखिरी द्वार पर पहुंचा तो महिला द्वारपाल ने उसे रूखेपन से रोक दिया| वह बोली – “एक सज्जन आदमी होकर आप एक स्त्री से रात के इस पहर में मिलना चाहते हैं| चले जाइए महाशय वरना आप अपने सिर पर मुसीबत मोल ले लेंगे|”
उदास शशि घर लौट आया| बिस्तर पर लेटकर वह सोचने लगा – ‘लगता है देवी सुमंगला को धूर्त बुद्धि का वरदान प्राप्त है| तभी उसने इतनी चतुराई से मुझे वापस लौटा दिया है|’ यही सोचता हुआ वह सो गया|
अगले दिन उसने अपने मित्र मूलदेव को यह घटना सुनाई| सुनकर मूलदेव ने कहा – “मित्र! एक सामान्य नर्तकी ने तुम्हें अपमानित कर दिया| मैं कसम खाता हूं कि इस अपमान का बदला उस नर्तकी से अवश्य चुकाऊंगा|”
उसी रात मूलदेव अनेक बहुमूल्य उपहार लेकर सुमंगला के महल में जा पहुंचा| जब उसे पहले द्वार पर रोका गया तो उसने महिला द्वारपाल को कुछ स्वर्णमुद्राएं घूस में दे दीं| द्वारपाल ने घूस लेकर तत्काल उसे अंदर जाने की अनुमति दे दी| इसी उपाय से उसे दूसरे द्वारों से भी प्रवेश मिलता गया, अंतत: वह सुमंगला के कक्ष तक पहुंच गया| इस अंतिम द्वार पर पहुंचकर उसने द्वारपाल को चमकते हीरों का एक बहुमूल्य हार दिया और कहा – “इसे अपनी स्वामिनी के पास ले जाओ और उनसे कहो कि मूलदेव आपसे भेंट करना चाहता है|”
युक्ति काम कर गई| कुछ ही देर में मूलदेव सुमंगला के सामने जा पहुंचा| इस रूप में वह अपनी पत्नी को पहचान नहीं पाया| वह बोला – “देवी! तुम्हारा रूप सचमुच ही बहुत अद्वितीय है| मेरी वाणी में इतनी शक्ति नहीं है, जो तुम्हारे रूप का गुणगान कर सके|”
सुमंगला ने उसका राजसी सत्कार किया| उसे एक ऊंचे आसन पर बिठाया और उसके सम्मुख अपना मनोहारी नृत्य प्रस्तुत किया| नृत्य देखकर मूलदेव बहुत प्रसन्न हुआ और फिर जब सुमंगला ने उसे फिर वहां आने का निमंत्रण दिया तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा|?
उस दिन के बाद प्राय: नित्यप्रति मूलदेव सुमंगला के पास पहुचंने लगा| तब एक दिन सुमंगला ने उससे कहा – “मूलदेव! मैं यहां पर सिर्फ अपनी कलाओं का प्रदर्शन करने के लिए ही नही आई थी, बल्कि मेरे यहां आने का उद्देश्य अपने लिए किसी योग्य वर को खोजना भी था| आज मेरी यह तलाश पूरी हो गई है| मैंने तुम्हें अपना जीवन-साथी चुन लिया है| बताओ, करोगे मेरे साथ विवाह?”
मूलदेव तो पहले ही उसके रूप पर मर मिटा था, उसने तत्काल सहमती व्यक्त कर दी| सुमंगला और मूलदेव का विवाह हो गया और वह सुमंगला के साथ ही उसके महल में रहने लगा| जब कुछ दिन बीत गए तो एक दिन सुमंगला ने सोचा – ‘मैं जिस उद्देश्य के लिए यहां आई थी, वह उद्देश्य पूरा हो गया| मूलदेव का अंश मेरे शरीर में आ चुका है| अब मुझे वापस पाटलिपुत्र लौट जाना चाहिए|’
ऐसा विचारकर उस चतुर स्त्री ने दूसरे दिन मूलदेव से कहा – “स्वामी! मुझे अपने राजा का संदेश मिला है| उसने मुझे तुरंत अपने नगर पहुंचने का आदेश दिया है|”
“तो क्या तुम चली जाओगी?” मूलदेव ने आशंकित होकर पूछा|
“जाना ही पड़ेगा| राजा की आज्ञा जो ठहरी| न जाऊंगी तो राजा नाराज हो जाएगा और मुझे सूली पर चढ़वा देगा, लेकिन तुम चिंता मत करो| मैं जल्दी ही यहां लौट आऊंगी|”
अगले दिन सुमंगला उज्जयिनी से चली गई| उसके जाने के बाद मूलदेव उदास रहने लगा|
सुमंगला एक बार गई तो फिर कभी उज्जयिनी नहीं लौटी| धीरे-धीरे मूलदेव ने भी उसकी ओर से अपना ध्यान हटा लिया|
उधर,पाटलिपुत्र पहुंचकर सुमंगला ने निश्चित अविध के पश्चात एक पुत्र को जन्म दिया और उसके लालन-पालन में व्यस्त हो गई|
धीरे-धीरे उस घटना को 12 वर्ष बीत गए| सुमंगला का वह लड़का विभिन्न विद्याओं में शिक्षित होकर बड़ा हो गया| फिर एक दिन एक ऐसी घटना घट गई, जिसने उस लड़के की जीवनधारा ही बदल दी| हुआ ये कि जब वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेल रहा था तो किसी बालक ने उसे ‘बिना बाप का बेटा’ कह दिया| इससे उस बालक के दिल पर गहरी ठेस लगी| वह उदास भाव से घर आया और अपनी मां से पूछा – “मां! मुझे सच-सच बताओ कि मेरे पिता कौन हैं और वे कहां रहते हैं?”
पुत्र का आग्रह सुनकर सुमंगला का मन द्रवित हो गया| उसने मूलदेव से अपने पहले और दूसरे विवाह की कहानी शुरू से अंत तक कह सुनाई| उसने यह भी बता दिया कि उसके पिता का नाम मूलदेव है, जो उज्जयिनी में रहते हैं और बहुत बड़े वेदान्ती हैं|
मां से सारी कहानी सुनकर लड़का बोला – “मां! मुझे अपने पिता के आवास और उनकी कुछ पहचान बता दो| मैं तुमसे वादा करता हूं कि उन्हें बंदी बनाकर यहां ले आऊंगा|”
सुमंगला ने मूलदेव की पहचान बताई| सब बातें जानकर लड़का उज्जयिनी के लिए चल पड़ा|
उज्जयिनी पहुंचकर लड़के ने अपने पिता की खोज-खबर आरंभ की| वह दिन-भर इधर-उधर घूमता रहा और जब शाम हो गई तो एक जुआघर के सामने जा पहुंचा| वहां उसने कुछ व्यक्तियों को इस प्रकार वार्तालाप करते सुना| एक व्यक्ति दूसरे से पूछ रहा था – “क्यों भाई! क्या तुमने मूलदेव को देखा है| मैं उसे सुबह से तलाश कर रहा हूं, बहुत जरूरी काम है उससे|”
“हां भाई! मैंने उसे देखा है|” दूसरा बोला – “अभी-अभी वह इस जुआखाने में गया है|”
मूलदेव का नाम सुनकर लड़का चौंक पड़ा| वह अपने मन में विचार करने लगा – ‘कहीं ये लोग मेरे पिता के बारे में ही तो बातें नहीं कर रहे| यदि ऐसा है तो मुझे इस आदमी के पीछे-पीछे चल देना चाहिए|’
ऐसा विचारकर लड़का उस व्यक्ति के पीछे-पीछे चल पड़ा| शीघ्र ही वह उस स्थान पर जा पहुंचा, जहां कुछ लोग बैठे जुआ खेल रहे थे| लड़के ने अपनी माता से जुए के अनेक गुर सीखे थे, अत: वह भी उन लोगों के पास बैठ गया| उसकी माता ने मूलदेव की जो-जो पहचान बताई थी, उसके आधार पर उसने अपने पिता को तुरंत पहचान लिया| तब उसने अपनी फेंट में बंधी स्वर्ण मुद्राओं से भरी पोटली खोल ली और उन लोगों के साथ जुआ खेलने लगा|
वह धूर्त विद्या में निपुण था, अत: शीघ्र ही उसने उन जुआरियों का सारा धन जीत लिया| यह देखकर मूलदेव के मुख से उसके लिए प्रशंसात्मक शब्द निकल गए| वह लड़के से बोला – “बालक! अभी तो तुम्हारी उम्र कुछ विशेष नहीं है, पर जुआ बहुत अच्छा खेलते हो| कहां से सीखी यह जुए की कला?”
लड़का बोला – “अजी महाशय! यह तो कुछ भी नहीं| मैं तो अनेक विद्याओं में प्रवीण हूं|”
लड़का जुआखाने से बाहर आया| जुए में जीता धन उसने बाहर बैठे भिखारियों में बांट दिया और आगे चलकर एक वृक्ष की ओट में छिपकर खड़ा हो गया| थोड़ी देर बाद मूलदेव जुआखाने से बाहर निकला और अपने घर की ओर चल पड़ा| लड़के ने उसका पीछा किया और घर का पता मालूम कर लिया, फिर उस रात जब मूलदेव गहरी नींद में सोया हुआ था, लड़का दीवार फांदकर उसके घर में दाखिल हो गया| उसने चोरी से मूलदेव के कक्ष में प्रवेश किया| वहां उसने एक कोने में रूई का एक ढेर देखा| उस रूई के ढेर को देखकर लड़के की आंखों में चमक पैदा हो गई| उसने ढेर सारी रूई मूलदेव के पलंग के पास बिछा दी, फिर धीरे-से अपने पिता को अपनी बांहों में भरकर उस रूई के ढेर पर सुला दिया| ऐसा करने के बाद उसने मूलदेव का पलंग उठाया| एक रस्सी से पलंग को बांधकर उसे नीचे लटकाया और फिर बड़ी तत्परता से नीचे कूद गया| इस प्रकार बड़ी चतुराई से वह लड़का मूलदेव का पलंग उड़ा ले गया|
अगली सुबह मूलदेव की जब आंख खुली तो वह दुख, हैरानी और लज्जा से भर उठा – ‘अरे! ये क्या हो गया? मैं सोता ही रहा गया और कोई चोर मेरे नीचे से पलंग की चोरी कर ले गया| अब तो मुझे सोने के लिए नया पलंग खरीदना पड़ेगा|’
दोपहर के समय मूलदेव नया पलंग लेने के लिए बाजार में पहुंचा| वहां उसने लड़के को देखा, जो पलंग के समीप खड़ा उसे बेचने की कोशिश कर रहा था| मूलदेव उस लड़के के पास पहुंचा| उसने लड़के से पूछा – “क्यों बालक! क्या मूल्य है इस पलंग का?”
लड़का बोला – “महाशय! इस पलंग का कोई मूल्य नहीं है| यह अनमोल है| मैं इस पलंग को उस व्यक्ति को दूंगा, जो मुझे कोई बहुत ही अजीब और आश्चर्यजनक कहानी सुनाएगा|”
“वैसी कहानी तो मैं तुम्हें सुना सकता हूं|” मूलदेव ने कहा – “पर मेरी भी एक शर्त है| यदि तुम मेरे द्वारा सुनाई हुई कहानी का अर्थ समझ सके और सच बता सके तो यह पलंग तुम्हारा, नहीं तो मैं इस पलंग को अपने साथ ले जाऊंगा|”
“ठीक है| मुझे आपकी शर्त मंजूर है| सुनाइए कहानी|” लड़के ने कहा|
मूलदेव ने अपनी कहानी आरंभ की|
“प्राचीन काल में एक राजा के राज्य में अकाल पड़ गया| उसने सुअर की प्रेमिका को सांपों के रथ से और पानी की बौछारों से ढक दिया| इस प्रकार से उत्पन्न अन्न से राजा ने अकाल को नष्ट कर दिया|” यह पहेली सुनाकर मूलदेव ने लड़के से पूछा – “अब तुम बताओ कि इस पहेलीनुमा कहानी का क्या अर्थ है?”
लड़का मुस्कराकर बोला – “इसका अर्थ तो बहुत आसान है| सांपों के रथ का अर्थ है, बादल| सुअर की प्रेमिका धरती है, क्योंकि वह भगवान विष्णु को उनके शूकरावतार में बहुत प्रिय थी, इसलिए आप कहना चाहते हैं कि राजा ने वर्षा द्वारा धरती पर अन्न उगाया था|”
मूलदेव लड़के की तीक्ष्ण समझदारी पर अवाक् रह गया| तब लड़के ने उनसे कहा – “अब मैं एक अद्भुत कहानी सुनाता हूं| अगर आप समझ सको और सच बता तो यह पलंग आपका, नहीं तो आप मेरे सेवक बनकर रहेंगे|”
मूलदेव ने अपनी सहमति व्यक्त की| वह बोला – “ठीक है, मुझे स्वीकार है तुम्हारी यह शर्त|”
लड़का कहने लगा – “बहुत पहले उस धरती पर एक अद्भुत लड़का पैदा हुआ था| जैसे ही वह पैदा हुआ, उसने अपने भार से धरती को हिला दिया| जब वह बड़ा हुआ तो उसने दूसरी दुनिया में कदम रखा|”
मूलदेव उस पहेली को हल न कर सका| वह कहने लगा – “यह कहानी झूठी है|”
इस पर उस विद्वान लड़के ने कहा – “झूठी नहीं, बिल्कुल सच्ची है यह कथा| धर्म पुस्तकों के विद्वान महाशय, क्या भगवान विष्णु ने ‘वामन अवतार’ में बौने का जन्म लेकर धरती को कंपाया नहीं था? फिर अपने विराट रूप से उन्होंने आकाश में कदम नहीं रखा था?”
मूलदेव चुप हो गया| लड़के ने बिल्कुल सही वर्णन किया था| मूलदेव को चुप देखकर लड़का बोला – “महाशय! आप मुझसे हार गए| अब आप हथियार डाल दीजिए और जहां मैं जाऊं, मेरे सेवक बनकर साथ चलिए|”
वचन से बंधा मूलदेव लड़के के साथ चलकर पाटलिपुत्र जा पहुंचा| लड़का मूलदेव को सीधा अपनी मां के पास ले गया| यह देखकर मूलदेव को अत्यंत हैरानी हुई कि उस लड़के की मां उसकी परित्यक्ता (छोड़ी हुई) पत्नी थी| उसके मुंह से बरबस ही निकल पड़ा – “अरे! सुमंगला तुम! तुम हो इस लड़के की मां?”
“हां मैं|” सुमंगला बोली – “तुम्हारी वही पत्नी, जिसे तुम छोड़कर चले गए थे| याद है, मैंने क्या प्रतिज्ञा की थी| मैंने कहा था कि तुम जहां भी जाओगे, लौटकर मेरे पास ही आओगे और वह भी मेरे बेटे के पिता बनकर| आज मेरी प्रतिज्ञा पूरी हुई|”
“लेकिन मेरा तो तुम्हारे साथ समागम ही नहीं हुआ था| मधुयामिनी की वह रात तो हमने वाद-विवाद में ही बिता दी थी, तब फिर यह लड़का…?”
“फिर भी यह तुम्हारा ही पुत्र है| याद करो कामरूप नगर में उज्जयिनी में आई उस नर्तकी सुमंगला को! वह नर्तकी मैं ही तो थी|”
अपनी पत्नी से सारी बातें जानकर मूलदेव के मन का संताप जाता रहा| उसने बांहें पसारकर अपने पुत्र को अपने अंक में भर लिया और उस पर अपनी ममता लुटाने लगा|
सुमंगला ने उससे पूछा – “अब तो कभी हमें छोड़कर न जाओगे?”
“हरगिज नहीं|” मूलदेव ने मुस्कराकर कहा – जाना भी चाहूं, तभी भी नहीं जा पाऊंगा| मेरे लड़के ने मुझे शास्त्रार्थ में जीतकर अपना सेवक जो बना लिया है”
मूलदेव की इस बात पर तीनों ने एक मिश्रित ठहाका लगाया|
जिससे वातावरण मुखरित हो उठा|