अपना-पराया
किसी होटल के मालिक ने एक लड़का नौकर रखा| उसकी उम्र अधिक नहीं थी| वह लड़का बड़ा भला और भोला था, बहुत ही ईमानदार और मेहनती था| एक दिन वह लड़का शीशे के गिलास धो रहा था|
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संयोग से एक गिलास उसके हाथ से फिसल गया और फर्श से टकराकर चूर-चूर हो गया| मालिक ने गिलास के गिरने और टूटने की आवाज सुनी तो दौड़ता हुआ आया और लाल-पिला होकर बोला – “क्यों रे बदमाश, यह क्या हुआ?”
बेचारा बालक वैसे ही डर रहा था, मालिक की भाव-भंगिमा देखकर उसके रहे-सहे होश भी गायब हो गए| अपने बचाव में वह कुछ कहे कि उससे पहले ही मालिक ने एक हाथ से कसकर उसका कान उमेठा और दूसरे से तड़ातड़ पांच-सात चांटे लगा दिए| बालक के मुंह से दबी हुई एक चीख निकलने को हुई, पर वह पी गया और कोई चारा भी तो नहीं था| मालिक ने दांत पीसते हुए उसे और उसकी सारी जमात को चुन-चुनकर गालियां दीं और जी भरकर उसे कोसा| फिर वह ज्योंही जाने को मुड़ा कि उसका लड़का आ गया| पिता के तमतमाए हुए चेहरे को देखकर वह उलटे पैरों लौटने को हुआ कि घबराहट में उसका पैर फिसल गया और प्लेटों की अलमारी पर गिरा| कई कीमती प्लेटें नीचे गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गईं| पिता ने दौड़कर अपने उस इकलौते बेटे को उठा लिया और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोला – “क्यों बेटे, तुम्हें चोट तो नहीं लगी?”
फिर प्लेटों के टुकड़ों की ओर देखकर बेटे को सांत्वना देते हुए कहा – “कोई बात नहीं है, ऐसा तो हो ही जाता है|”
कुछ कदम पर खड़े नौकर ने मालिक के चेहरे पर व्याप्त ममता को देखा और अपनी उम्र के उस लड़के पर निगाह डाली| अचानक उसने पाया कि उसके गालों पर पड़ी चांटों की मार जोर से कसक उठी है और रोकते-रोकते भी उसकी आंखों से आंसुओं की कई बड़ी-बड़ी बूंदें टपक पड़ीं| उसे भगवान ने छोटी उम्र में ही अपने पराए का भेद समझा दिया था|