अपमान का बदला
द्रोणाचार्य का जीवन बड़े सुख से व्यतीत हो रहा था| उन्हें हस्तिनापुर राज्य की ओर से अच्छी वृत्ति तो मिलती ही थी, अच्छा आवास भी मिला हुआ था| राजकुटुंब के छोटे-बड़े सभी लोग उन्हें मस्तक झुकाया करते थे| स्वयं देवव्रत भी उनका बड़ा आदर किया करते थे|
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पर्व और त्योहारों पर द्रोणाचार्य राजकुटुंब में बुलाए जाते थे| उनका सम्मान तो किया ही जाता था, उन्हें अच्छी दक्षिणा भी दी जाती थी| किंतु द्रोणाचार्य मन-ही-मन खिन्न रहा करते थे| ऐसा लगता था, जैसे उनके मन में कोई चिंता हो| कोई पीड़ा हो| सचमुच द्रोणाचार्य के मन को एक चिंता की आग जलाया करती थी| वह चिंता की आग थी, द्रुपद से बदला| द्रुपद उनका विद्यार्थी जीवन का मित्र था| उन्होंने बाण विद्या प्राप्त करने में उसकी सहायता की थी| उसने उन्हें आधा राज्य देने का वचन दिया था| किंतु जब वे उसके पास गए, तो आधा राज्य देने की कौन कहे, उसने पहचानने से भी इनकार कर दिया था| द्रोणाचार्य का मन भीतर ही भीतर अपमान की आग से जला करता था| उन्होंने यह सोच रखा था, जब तक वे द्रुपद से अपमान का बदला नहीं लेंगे, संतोष की सांस नहीं लेंगे|
ज्यों-ज्यों दिन बीतते जा रहे थे, द्रोणाचार्य के भीतर की व्यथा तीव्र होती जा रही थी| उन्हें न तो रात में नींद आती थी, न दिन में खान-पान अच्छा लगता था| मनुष्य के मन में जब कोई गहरी व्यथा पैदा हो जाती है, तो जब तक वह दूर नहीं होती, उसे अपना ही जीवन भार-सा प्रतीत होने लगता है|
काफी दिन बीत चुके थे| द्रोणाचार्य की उम्र का सूर्य ढलने लगा था| सिर के बाल श्वेत होने लगे थे| वे पांडव और कौरव राजकुमारों को बहुत कुछ शिक्षा दे चुके थे|
सुबह का समय था| द्रोणाचार्य ने क्रम-क्रम से अपने शिष्यों को बुलाकर उनसे पूछना प्रारंभ किया – पांचाल के नृपति (राजा) द्रुपद ने मेरा अपमान किया है| क्या तुम उसे बंदी बनाकर मेरे सामने ला सकते हो?
सभी शिष्यों का एक ही उत्तर था, “गुरुवर्य, मैं अकेला द्रुपद को बंदी बनाकर कैसे ला सकता हूं? वह पांचाल देश का नृपति है| उसके पास सेना है, सिपाही हैं, अस्त्र-शस्त्र हैं|”
सबसे अंत में द्रोणाचार्य ने अर्जुन को बुलाया| उन्हें अर्जुन पर बड़ा गर्व था| उन्होंने बड़े प्रेम से अर्जुन को बाणविद्या की शिक्षा दी थी| उनके पास जो कुछ था, उन्होंने सबकुछ अर्जुन को सिखा दिया था| सबसे बड़ी बात तो यह थी कि अर्जुन को उनका आशीर्वाद प्राप्त था| अर्जुन स्वयं इंद्र का अंश था| वह बाण विद्या का अद्भुत पंडित था| वह अपने बाणों से आकाश के तारों को भी फल के समान नीचे गिरा सकता था| सूर्यमंडल को भी निस्तेज बना सकता था|
द्रोणाचार्य ने अर्जुन से भी वही प्रश्न किया, जो दूसरे राजकुमारों से किया था, “पांचाल-नरेश द्रुपद ने मेरा अपमान किया है| क्या तुम उसे बंदी बनाकर मेरे सामने ला सकते हो?”
अर्जुन बोला, “गुरुवर्य ! आपके आशीर्वाद से मैं द्रुपद क्या, तीनों लोकों के नरेशों को भी बंदी बनाकर आपके समक्ष ला सकता हूं|”
गुरु द्रोणाचार्य ने प्रसन्न होकर अर्जुन के मस्तक पर अपना दाहिना हाथ रख दिया| अर्जुन नतमस्तक हो गया| वह धनुष बाण लेकर पांचाल की राजधानी की ओर चल पड़ा| वहां पहुंचकर सावधानी के साथ वह द्रुपद की गतिविधि का निरीक्षण करने लगा – वह कब बाहर निकलता है और कब और कहां जाता है| अर्जुन को ज्ञात हुआ कि द्रुपद प्रतिदिन प्रात: काल राजोद्यान में भ्रमण करने के लिए जाता है| अर्जुन ने उसे उसी समय बंदी बनाने का निश्चय किया|
प्रभात का समय था| सूर्योदय हो चुका था| गगनमंडल पर चहचहाते हुए पक्षी उड़ रहे थे| पुष्पों पर भौंरे गुंजार कर रहे थे| मंद-मंद सुगंधित हवा चल रही थी| द्रुपद राजोद्यान में धीरे-धीरे भ्रमण कर रहा था| सहसा विद्युत के समान पहुंचकर अर्जुन ने उसे बंदी बना लिया| साथ के अनुचरों ने जब बाधा उपस्थित की तो अर्जुन ने उन्हें मारकर भगा दिया| थोड़ी ही देर में द्रुपद के बंदी होने का समाचार राजधानी के घर-घर में फैल गया| सैनिक-सिपाही अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़ पड़े| सबने एक साथ मिलकर द्रुपद को छुड़ाने का प्रयत्न किया, किंतु अर्जुन की बाण वर्षा ने सबको असहाय कर दिया| जिस प्रकार सिंह अपने शिकार को लेकर गीदड़ों के बीच से बाहर निकल जाता है, उसी प्रकार अर्जुन द्रुपद को बंदी बनाकर उसकी सेना की पहुंच से बाहर निकल गया|
अर्जुन के तेज और उसके अद्भुत शौर्य ने द्रुपद को मुग्ध कर दिया| वह बोला, “बड़े शूरवीर हो तुम किंतु यह तो बताओ तुम कौन हो? तुमने मुझे क्यों बंदी बनाया है? तुम बंदी बनाकर मुझे कहां ले जाना चाहते हो?”
अर्जुन बोला, “मैं कौन हूं, यह तो यहीं बताऊंगा, किंतु आपके दूसरे और तीसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि मैंने अपने गुरु की आज्ञा से आपकी बंदी बनाया है| मैं अपने गुरु के पास ही आपको ले चल रहा हूं| मेरे गुरु ही आपके संबंध में निर्णय करेंगे| विश्वास रखिए, मैं आपके साथ अभद्रता का बरताव नहीं करूंगा|”
द्रुपद आश्चर्य भरे स्वर में बोला, “तुमने मुझे अपने गुरु की आज्ञा से बंदी बनाया है| क्या नाम है तुम्हारे गुरु का?”
अर्जुन ने उत्तर दिया, “मेरे गुरु का नाम है द्रोणाचार्य !”
द्रुपद के मुख से आश्चर्य के साथ निकल पड़ा, “द्रोणाचार्य !”
द्रुपद की आंखों के सामने एक चित्र नाच उठा| उसने उस चित्र में देखा – उसके विद्यार्थी जीवन का मित्र द्रोणाचार्य दीनभाव से उसके सामने खड़ा है| उसे अपनी मित्रता की याद दिलाकर उससे सहायता की याचना कर रहा है, किंतु उसने उसकी ओर से अपना मुख फेर लिया है और बड़ी उपेक्षा के साथ उत्तर दिया है – वह तो उसे जनता ही नहीं|
द्रुपद मन-ही-मन सोचने लगा, वह तब तक सोच-विचार में डूबा रहा, जब तक अर्जुन उसे बंदी रूप में लेकर द्रोणाचार्य के सामने नहीं पहुंच गया| उसने द्रुपद को द्रोणाचार्य के सामने खड़ा कर दिया| अर्जुन बोला, “गुरुवर्य, पहचानिए, यही है न द्रुपद?”
द्रोणाचार्य ने द्रुपद की ओर देखा| उसका मस्तक झुका हुआ था| द्रोणाचार्य बोले, “हां, बेटा अर्जुन ! यही है पांचाल देश के नृपति द्रुपद ! इन्होंने ही एक दिन मेरी गरीबी का उपहास किया था| यह मेरे विद्यार्थी जीवन के साथी हैं, पर इन्होंने ही कहा था, मैं तो तुम्हें पहचानता ही नहीं| तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है| तुम्हारी कीर्ति युग-युगों तक अक्षय और अमर बनी रहेगी|”
द्रोणाचार्य ने द्रुपद की ओर देखते हुए कहा, “द्रुपद, मस्तक उठाकर मेरी ओर देखो| अब तो मुझे पहचान रहे हो न?” पर द्रुपद ने कोई उत्तर नहीं दिया| उसका मस्तक झुका ही रह गया| द्रोणाचार्य ने द्रुपद की ओर देखते हुए पुन: कहा, “घबराओ नहीं द्रुपद ! मैं तुम्हारा अपमान नहीं करूंगा| अर्जुन ! इन्हें बंधन से मुक्त कर दो| द्रुपद, तुम अपने को स्वतंत्र समझो| तुम चाहे जहां जा सकते हो|”
अर्जुन ने द्रुपद को मुक्त कर दिया| द्रुपद का मस्तक ऊपर नहीं उठा| उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह द्रोणाचार्य की बात का क्या उत्तर दे, द्रोणाचार्य के सामने से जाए तो किस ओर जाए? मनुष्य जब अपने किए पर लज्जित हो जाता है, तो उसका यही हाल होता है|