सुनहरे हिरण
दो हिस्सों में बँटा हुआ एक जंगल था| दोनों भागों में दो सुनहरे हिरण रहते थे| एक का नाम था- वट हिरण और दूसरे का- शाखा हिरण| दोनों का अपना-अपना दल था|
काशी नरेश को हिरण के शिकार का बहुत शौक था| वह समय-असमय अपने सैनिकों को लेकर शिकार करने निकल जाता| सभी सैनिक उससे बहुत परेशान थे|
एक दिन लोगों ने सोचा कि क्यों न सारे हिरणों को घेरकर राजा के बाग में इकठ्ठा कर दिया जाए| इससे हम समय-असमय शिकार पर जाने से तो बच जाएँगे|
अगले दिन उन्होंने वैसा ही किया|
अब राजा का जब दिल करता बाग में पहुँच जाता और हिरणों का शिकार करता| धीरे-धीरे हिरणों की संख्या घटने लगी| किंतु राजा उन दोनों सुनहरे हिरणों को नही मारता था|
एक दिन दोनों सुनहरे हिरणों ने आपस में विचार-विमर्श किया और राजा के पास जाकर बोले, ‘महाराज यदि आप इसी तरह शिकार करते रहेंगे तो हमारा वंश ही समाप्त हो जाएगा| इसलिए हम आपके पास रोज़ एक हिरण भेज दिया करेंगे| इस तरह से आपका भी काम चल जाएगा और हमारी संख्या भी बनी रहेगी|’
राजा को उन हिरणों का विचार अच्छा लगा| उसने तुरंत मंजूरी दे दी|
एक दिन एक गर्भवती हिरणी की बारी आ गई| वह सुनहरे हिरण के पास जाकर बोली, ‘अगर मैं कुछ दिन और जी लूँगी तो एक हिरण और बढ़ जाएगा| इसलिए मेरी जगह किसी और को भेज दो|’
सुनहरे हिरण ने उसकी बात मान ली और उसके स्थान पर वह स्वयं चला गया| राजा ने सुनहरे हिरण को देखकर कहा, ‘मैं तुमको नही मार सकता| अपने स्थान पर किसी और हिरण को भेजो|’
सुनहरे हिरण ने विनती करते हुए कहा, ‘महाराज, आज जिस हिरणी की बारी है, वह गर्भवती है| इस लिए मजबूरी में मुझे आना पड़ा| आप मुझे मार डालिए और उस हिरणी को कुछ दिन के लिए अभयदान दे दीजिए|’
यह सुनकर राजा के मन को ठेस लगी| वह सोचने लगा कि जीवों की हत्या करना पाप है| फिर उसने उन सभी हिरणों को आज़ाद कर दिया तथा उनके शरीर पर प्रतिबंध लगा दिया|
उसके बाद जंगल के सारे जीव आनंदपूर्वक जीवन बिताने लगे|
शिक्षा: जीवहत्या महापाप है| यह जीवन ईश्वर की देन है और उसी को इसे वापस लेने का हक है| लेकिन इस नियम को भंग करने वाला है मनुष्य, जो अपने निहित स्वार्थों के चलते ऐसा करता है| जानवर एक-दूसरे को मारते है, इसीलिए जंगली कहलाते है| लेकिन मनुष्य को क्या कहा जाए!