मुर्ख सियार

किसी वन में चण्डरव नामक एक सियार रहता था| एक दिन वह भूख से व्याकुल भटकता हुआ लोभ के कारण समीप के नगर में पहुंच गया| उसको देखते ही नगरवासी कुत्ते उसके पीछे पड़ गए|

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अपने प्राण बचाने के लिए सियार जब भागा तो वह धोबी के घर में घुस गया| कुत्तों ने जब वहीं तक उसका पीछा किया तो वह समीप रखे बहुत बड़े नील के भांड से कूद पड़ा| उसको कूदते देखकर कुत्ते भाग गए|

सियार जब उस भाण्ड से बाहर निकला तो सारा नीला हो गया और जब वह जाने लगा तो कुत्तों ने उसको सियार नहीं कुछ और समझकर उसका पीछा नहीं किया| फिर भी चण्डरव वहां से सिर पर पैर रखकर वन की ओर भागा| जब वह वन में घुस गया और उसको विश्वास हो गया कि अब कुत्तों की पहुंच से बाहर है तो फिर उसने रुककर सांस ली| कुछ स्वस्थ होने पर वह फिर से वन के भीतर चला गया|

इस प्रकार के विचित्र, पशु को देखकर साधारण वन्य प्राणी तो क्या शेर, चीता तक भय से इधर-उधर भागने लगे| उनका कहना था कि न तो उनको इसके स्वभाव का ज्ञान है और न शक्ति का ही, अत: इससे दूर ही रहना चाहिए|

वन्य पशुओं को इस प्रकार स्वयं से भयभीत देखकर उनको सम्बोधित करते हुए सियार ने कहा, तुम लोग मुझे देखकर भाग क्यों रहे हो? डरने की कोई बात नहीं है| प्रजापति ने आज मुझे यहां भेजते हुए आदेश दिया है कि वन्य पशुओं का इस समय कोई राजा नहीं है इसलिए मैं वहां का राज्य तुम्हें सौंप रहा हूं| तुम पृथ्वी पर जाकर समस्त वन्य पशुओं की रक्षा करो| अब तुम लोग मेरी छत्रछाया में रहकर आनन्द करो| महाराज ककुद्रुम के नाम से मैं तीनों लोकों में पशुओं का राज विख्यात हो चुका हूं|

यह बात सुनते ही सिंह व्याघ्र आदि सभी वन्य प्राणी स्वामिन्, प्रभो, इत्यादि सम्बोधन कर उसके चारों ओर मंडराने लगे| तब उसने सिंह को अपना मंत्री बनाया, व्याघ्र को अपना शईया पालक बनाया, चीते को पान लगाने के काम पर लगाया, भेड़िये को द्वारपाल बनाया, किन्तु जो स्वजातीय सियार थे उनसे बात तक नहीं की, उनको दूर-दूर ही रखा और अपने राज्य से बाहर निकाल दिया| बस फिर क्या था| उस दिन के बाद सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं को मारकर उसके समीप लाते और वह उस मांस को उन सब में वितरण कर देता|

इस प्रकार राज्य करते हुए कुछ दिन बीत गए| एक दिन वह सभा में बैठा किसी गहन विषय पर विचार कर रहा था कि तभी दूर वन में रहने वाले सियार सहसा ‘हुंआ-हुंआ’ कर उठे| उस ध्वनि को सुनकर वह छद्म सियार ऐसा हर्षोत्फुल्ल हुआ कि उसको ध्यान ही नहीं रहा कि वह यहां का राजा बन बैठा है और उसने भी उसी प्रकार ‘हुंआ-हुंआ’ करना आरम्भ किया| उसे इस प्रकार करते सुन सिंह आदि समझ गए कि अरे यह तो सियार है| बस फिर क्या था, कुछ क्षण तक तो वे स्वयं मुर्ख बनने के कारण लज्जित से मुख नीचा किए बैठे रहे| किन्तु तभी उनके स्वाभिमान ने जोर मारा ओर उन्होंने उस सियार को पकड़कर चीर कर रख दिया|

यह कथा समाप्त करने के पश्चात दमनक ने कहा, ‘इसलिए कहते हैं कि जो आत्मीयजनों की अवहेलना करता है उसकी यही दशा होती है|’

पिंगलक ने फिर कहा, ‘आखिर इसका प्रमाण क्या है कि संजीवक मेरे प्रति द्रोह कर रहा है?’

‘मेरे सामने आज उसने कहा है कि कल प्रात:काल होने तक मैं पिंगलक को मारकर रख दूंगा| उसका प्रणाम ही यदि आप चाहते हैं तो कल प्रात:काल देख लीजिएगा| जब वह लाल-लाल आंखो से आपकी ओर देखता हुआ आएगा और आपकी उपेक्षा करता हुआ अनुचित स्थान पर बैठने का यत्न करेगा| तब आप जैसा उचित समझें वैसा कीजिए|

इतना कहकर वह वहां से उठ गया ओर संजीवक के पास जाकर बैठ गया| उसको इस प्रकार शान्त भाव से बैठते देखकर संजीवक बोला, ‘आओ मित्र! बैठो|’ आज बहुत दिनों बाद दिखाई दिए हो? कहो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूं|

उसकी बात सुनकर दमनक बोला, ‘सेवकजन की कुशल कहां? राजसेवकों की सम्पत्ति तो दूसरों के आधीन होती है| चित्त सदा अशान्त बना रहता हे और अपने जीवन के प्रति भी उन्हें सन्देह ही बना रहता है|

संजीवक बोला, आखिर बात क्या है? आप इतने व्यग्र क्यों हैं|

मित्र! सचिवों के लिए गुप्त मन्त्रणा का उद्घाटन करना अच्छा नहीं होता| मन्त्री पद पर नियुक्त होने के बाद जो व्यक्ति राजा के रहस्य को प्रकाशित कर देता है वह राजकार्य की हानि करता है| तदपि मैं आपका स्नेहपात्र होने के कारण उसे प्रकाशित कर रहा हूं| क्योंकि मेरे ही विश्वास पर आप यहां आए हैं और अभी तक टिके हैं, बात यह है कि पिंगलक अब तुम्हारे प्रति द्रोह करने लगा है| उसने आज एकांत में मुझसे कहा है कि कल प्रात:काल होने तक मैं संजीवक को मारकर खा जाऊंगा| मैंने उसको बहुत समझाया कि उसका यह कृत्य उचित नहीं है| इससे उस पर मित्रद्रोह का कलंक लगेगा और फिर आपने उसको अभयदान दिया हुआ है किन्तु उसने मेरी बात सुनना स्वीकार नहीं किया| इसीलिए मैं आपके पास आया हूं जिससे कि मुझ पर विश्वासघात का दोष न रहे| अब आप जो उचित समझें, करें|

यह सुनकर संजीवक की भी मनोदशा वैसी ही हुई जैसी कि पिंगलक की हुई थी| कुछ स्वस्थ होने पर संजीवक कहने लगा, ठीक ही हुआ है कि राजा प्राय: स्नेहरहित होता है| स्त्रियां प्राय: दुष्टों के साथ रहना ही पसन्द करती हैं, धन कृपण के पास ही रहता है, मेघ प्राय: गिरि की चोटियों पर ही बरसता है| मैंने पिंगलक के साथ जो मैत्री की थी वह मेरी बहुत बहुत बड़ी भूल थी| मैत्री तो समान स्वभाव के पुरुषों के साथ होती है’|

दमनक बोला, ‘मित्र! यदि यही बात है तो आपको डरने की आवश्यकता नहीं| दूसरों की चुगली से रुष्ट होने पर भी तुम्हारी वाक्यातुरी से वह तुम पर प्रसन्न ही होगा|’

‘नहीं, ऐसी बात नहीं है| दुष्ट भले ही छोटे क्यों न हों, उनके मध्य में भले व्यक्ति का रहना उचित नहीं है| किसी-न-किसी उपाय से वे उस सज्जन के मार ही डालते हैं| कहा भी गया है कि जब बहुत से धूर्त, क्षुद्र तथा मायावी जीव एकत्रीत हो जाते हैं तो वे कुछ-न-कुछ करते ही हैं चाहे वह उचित हो अथवा अनुचित| इसी प्रकार काक आदि क्षुद्र जीवों ने मिलकर बहुत बड़े ऊंट को मार डाला था|’