मुर्ख सिंह और चतुर सियार
किसी वन प्रदेश में वजदंष्ट्र नाम का एक सिंह निवास करता था| चतुरक नाम का श्रृंगाल और कव्यमुख नाम का भेड़िया उसके ये दो सेवक थे|
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एक दिन की बात है कि वन में घूमते हुए सिंह ने ऐसी ऊंटनी को देखा जो प्रसव-पीड़ा के कारण अपने झुंड से बिछुड़कर तड़प रही थी| सिंह को दया कहाँ? उसने तत्काल उस ऊंटनी को मार डाला| मारकर ज्यों-हि उसने उसका पेट चीरा तो उसमें ऊंट का शिशु था|
ऊंटनी का मांस तो उस सिंह तथा उसके परिवार ने वहीं पर खाकर अपनी भूख मिटा ली किन्तु उस शिशु को लेकर वह अपने घर आ गया और फिर उससे बोला, ‘बेटे! तुम मेरे पुत्र के समान हो| यहां तुम्हें किसी से भय नहीं है, तुम निर्व्दन्द होकर यहां विचरण करो| तुम्हारा नाम मैं शंकुकर्ण रखता हूँ अब तुम इसी नाम से पुकारे जाओगे|’
इस प्रकार उन चारों का जीवन आनन्द और उल्लास से बीतने लगा| इस प्रकार शनै:-शनै: वह ऊंट का बच्चा भी बड़ा होता गया और जब वह पूर्ण युवा हो गया तब भी उसने सिंह का साथ नहीं छोड़ा| तभी एक दिन की बात है कि उसके लिए चलना फिरना ही कठिन हो गया| एक दिन जब सिंह भूख से पीड़ित हुआ तो उसने अपने सेवकों से कहा कि किसी ऐसे वन्य प्राणी की खोज करें जिसको वह इस घायलवस्था में भी मारकर उसके भोजन की व्यवस्था कर सके|
उस दिन वे तीनों दिन भर वन में घूमते रहे किन्तु कहीं कुछ नहीं मिला तो सियार ने सोचा क्यों न आज इस ऊंट को ही मारकर भूख मिटाई जाए| किन्तु उसको संदेह था कि उसका स्वामी उसको मारेगा भी? तदपि अपनी बुद्धि का प्रयोग तो करना हि चाहिए| उसने शंकुकर्ण से कहा, ‘बात यह है कि आज हमारे स्वामी को भोजन नहीं मिला| यदि स्वामी न रहे तो हमारा भी विनाश निश्चित है| स्वामी के हित के लिए मैं तुमसे एक बात कहता हूँ| उसे ध्यान से सुनो| तुम ऐसा करो कि दूने ब्याज पर अपना शरीर स्वामी को समर्पित कर दो| इससे तुम्हारा शरीर दूना हो जाएगा और स्वामी को भोजन मिल जाएगा|
‘ठीक है| किन्तु तुम स्वामी को बता देना कि इस व्यवहार में इन्हें धर्म को साक्षी के रूप में स्वीकार करना होगा|’
यह प्रबन्ध करके वह सिंह के पास गए और सियार ने सिंह से कहा, ‘देव! कोई भी जीव नहीं मिला, और सूर्यास्त भी हो गया है| यदि आपको द्विगुण शरीर देना स्वीकार हो तो यह शंकुर्ण धर्म को साक्षी मानकर द्विगुण ब्याज पर अपना शरीर देने को प्रस्तुत है|’
सिंह ने कहा, ‘यदि यह बात है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं| तुम धर्म को साक्षी मानकर इसके शरीर को ले सकते हो|’
सिंह की स्वीकृति मिलते ही सियार और भेड़िये ने उस ऊंट की चीर डाला| ऊंट के मर जाने पर सिंह ने चतुरक से कहा, ‘मैं नदी में स्नान करके आता हूं तब तक तुम इस ऊंट की रक्षा करना|’
सिंह जब चला गया तो सियार सोचने लगा कि ऐसा कौन-सा उपाय हो सकता है कि जिससे यह सारा ऊंट मेरे ही हिस्से में आ जाए| कुछ सोचकर उसने क्रव्यमुख से कहा, ‘लगता है तुम्हें बहुत भूख लगी है| जब तक स्वामी लौटकर नहीं आ जाते तब तक तुम थोड़ा सा मांस खा लो|
भूखे भेड़िये ने चतुरक के कहने पर ज्यों हि मांस खाना आरम्भ किया अब सिंह ने जब भोग लगा खाना आरम्भ किया तो उसने देखा कि ऊंट का हृदय तो उसके स्थान पर नहीं है| उसने क्रोध में कहा, ‘इसको किसने जूठा किया है’?
यह सुनकर भेड़िया सियार की ओर देखने लगा, सियार थर-थर काँप रहा था| चतुरक हंसकर कहने लगा, ‘अब मेरे मुख की ओर क्या देखता है? जूठा करते समय तो मुझसे पूछा नहीं, अब अपनी करनी का फल भोग|
सियार की बात सुन अपनी मृत्यु निकट देख भेड़िया तो अपनी जान लेकर वहां से भाग खड़ा हुआ| उधर सिंह उस ऊंट को खाने की सोच हि रहा था कि उसी समय बोझ से लदा हुआ ऊंटो का एक दल उस स्थान पर जाता दिखाई दिया| आगे वाले ऊंट के गले में एक बड़ा सा घंटा लटक रहा था जिससे चलने में शब्द होता था| उसे सुनकर सिंह ने सियार से कहा, ‘जाकर देख तो यह कैसा शब्द है|’
सियार ने जाकर देखा कि ऊंटों का एक समूह जा रहा है| वह तुरन्त लौट आया और कहने लगा, ‘स्वामी यदि आप भाग सकते हो तो यहां से शीघ्र भाग जाइए| लगता है आपने जो क्रुद्ध ऊंट को मार डाला है, अब यमराज दण्ड रूप में आप से एक हजार ऊंट लेने के लिए इसी ओर चले आ रहे हैं|
सियार की बात सुनकर जब सिंह ने उस ओर देखा तो उसको ऊंटों का समूह दिखाई दिया| सिंह को अन्य कोई मार्ग नहीं सूझा| उसने मृत ऊंट को वहीं छोड़ा और सिर पर पैर रखकर वहां से गहन वन की ओर भाग गया इस प्रकार चतुरक कई दिन तक उस मांस को खाता रहा|
इस कथा से करटक को संतोष हो गया|
उधर संजीवक सोचने लगा कि स्वयं घास खाने वाला होने पर भी उसने एक मांसभोजी से मित्रता कर ली| अब क्या करना चाहिए| यदि कहीं अन्यत्र चला भी जाता हूं तो यह यहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा| अंतत सोच विचार कर वह पिंगलक के पास ही चला गया| वहां जाकर जब उसने शेर को ठीक उसी प्रकार देखते पाया जिस प्रकार दमनक ने कहा था तो उससे डर कर वहा अपना शरीर सिकोड़कर उसको प्रणाम किए बिना दूरी पर जाकर बैठ गया|
यह देखकर पिंगलक को दमनक की बात का विश्वास हो गया| उसने व्यर्थ समय गंवाना उचित न समझा उसी समय बैल पर आक्रमण बोल दिया| संजीवक जब आहत होने लगा तो उसने अपने सींगों से सिंह के पेट को फाड़ना आरम्भ किया| वह उठ कर खड़ा हो गया और पिंगलक से लड़ने के लिए गुर्राने लगा|
यह सब देखकर करटक ने दमनक से कहा, ‘इन दोनों के मध्य विरोध भाव उत्पन्न कर तुमने अच्छा नहीं किया|’
पिंगलक को आघातों से संजीवक की दशा बिगड़ गई थी| उसकी मृत्यु निकट थी| करटक कहने लगा, ‘न झुकने योग्य शुष्क काष्ठ झुकता नहीं| पाषाण जैसे कठोर वस्तु को काटना कठिन है, उसी प्रकार अयोग्य शिष्य को भी शिक्षित करना बड़ा कठिन है|’