मित्र की खोज
दक्षिण के किसी जनपद में महिलारोप्य नाम का एक नगर था| उस नर से कुछ दूरी पर एक बहुत बड़ा वटवृक्ष था, जिसके फल खाकर सभी पक्षी अपना पेट भरते थे और जिसके कोटरों में अनेक प्रकार के कीट निवास किया करते थे, जिसकी शीतल छाया में दूर-दूर से आने वाले पथिक विश्राम किया करते थे|
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उस वृक्ष की किसी शाखा पर लघुतनक नाम का एक कौआ रहता था| एक दिन की बात है कि कौआ अपनी आजीविका के लिए इधर-उधर उड़ रहा था कि उसे दूर से एक अत्यन्त कुरूप और क्रूर स्वभाव का व्यक्ति हाथ में जाल लेते हुए सामने से आता दिखाई दिया| उसे देखकर कौआ अपने मन में सोचने लगा कि यदि यह यमदूत आज हमारे वटवृक्ष की ओर चला गया तो न जाने क्या अनर्थ हो? पक्षी बचेंगे या जीएंगे?
यह विचार आते ही वह अपनी आजीविका की चिन्ता छोड़कर तत्काल लौटकर अपने वृक्ष की ओर चल दिया| वहां जाकर उसने सब पक्षियों को एकत्रित कर कहा, ‘मित्रो! एक दुष्ट व्याध अपने हाथ में चावलों की पोटली और कन्धे पर जाल लिए इधर ही चला आ रहा है| उसने यदि यहां आकर चावलों को बिखेर कर जाल बिछाया तो समझना कि वह चावल के दाने नहीं अपितु आप लोगों के लिए विष में समान है| आप लोग उनकी ओर दृष्टि ही नहीं करना, उनको चुगने की तो बात ही दूर रही|’
कौआ अपने साथियों को समझा ही रहा था कि तब वह व्याध वहां पहुंच गया और उस वृक्ष के नीचे खड़ा होकर विचार करने लगा| फिर उसने वहीं पर अपना जाल बिछाया और उस पर चावलों के दानों को बिखेर दिया| स्वयं दूर जाकर छिपकर बैठ गया| किन्तु उस वृक्ष पर निवास करने वाले पक्षियों को तो कौए ने भली-भांति सावधान कर दिया| अत: वे उन चावलों को हलाहल विष समझकर उनकी ओर देख भी नहीं रहे थे|
इस बीच में चित्रग्रीव नाम का एक कबूतरों का राजा अपनी विशाल प्रजा के साथ दाना-पानी खोजता हुआ इधर से निकला तो उन्होंने उन सफेद चावलों के दानों को बिखरा हुआ पाया| यद्यपि लघुपतनक ने उनको भी बार-बार सावधान किया किन्तु वे भूख से ऐसे व्याकुल हो रहे थे कि उसकी बात पर ध्यान न देकर वे उन चावलों पर टूट ही पड़े| इस प्रकार से उस जाल में फंस गए| जीभ का लालच बड़ा बुरा लालच होता है|
बहेलिए ने जब कबूतरों को अपने जाल में फंसा हुआ पाया तो उसकी बड़ी प्रसन्नता हुई और वह अपनी लाठी उठाकर उनको मारने के लिए चल पड़ा| चित्रग्रीव ने उसे बहेलिए को आते हुए दूर से देख लिया था| उसने अपनी प्रजा को आश्वस्त करते हुए कहा, ‘मित्रों’| बहेलिये को देखकर तुम लोग चिन्तित नहीं होता| क्योंकि कहा गया है कि अनेक आपत्तियों में घिर जाने पर भी जिस व्यक्ति की बुद्धि क्षीण नहीं होती वह व्यक्ति अपनी बुद्धि के प्रभाव से उन आपत्तियों को पार कर लेता है|’
चित्रग्रीव ने अपने साथियों को सुझाव दिया कि बहेलिये के उनके पास एक पहुंचने से पहले ही सब लोग एक साथ उड़कर चाल समेत यहां से दूर जाएं ओर फिर बहेलिये की आंखों से ओझल होने पर जाल से मुक्त होने का कोई उपाय सोचा जाए| तदनुसार बहेलिये के वहां पर पहुंचने से पहले ही वे जाल को लेकर उड़ चले| बहेलिये ने जब इस प्रकार उनको उड़कर जाते देखा तो उसने दौड़कर उनका पीछा करना चाहा| वह सोच रहा था कि अभी तो इनमें शक्ति भी है और एकता भी किन्तु कुछ देर बाद ये थक जाएंगे, भार से दब भी जाएंगे और फिर इनमें परस्वर वैमनस्य भी होगा| तब ये जाल समेत नीचे आ जाएँगे| उस समय इनको सरलता से पकड़ा जा सकेगा|
वटवृक्ष पर बैठा लघुपतनक नाम का कौआ यह सब देख रहा था| कौतुहलवश उसने भी उन कबूतरों का पीछा करना आरम्भ कर दिया| देखते-देखते कबूतर बहेलिये के जाल को लेकर उसकी दृष्टि से ओझल हो गए| वह निराश होकर कहने लगा, ‘जो भाग्य में नहीं होता है वह नहीं होता है| और जो भाग्य में होता है वह बिना यत्न के ही हो जाता है| भाग्य अनुकूल न होने पर हाथ में आई वस्तु भी नष्ट हो जाती है मेरा भाग्य विपरीत है इसलिए कबूतरों का मांस तो दूर, अपितु आजीविका का साधन जाल भी उनके साथ ही चला गया|’
चित्रग्रीव ने जब देखा कि बहेलिया बहुत पीछे रह गया है और अब उसके उस ओर आने की कोई सम्भावना नहीं है तो उसने अपने साथियों से कहा, ‘वह दुष्ट बहेलिया तो लौट गया है, अब आप लोग इस नगर की पूर्वोतर दिशा की ओर चलिए| वहां हिरण्यक नाम का एक चूहा मेरा मित्र है, वह हमारे इन बन्धनों को काट देगा|’
तदनुसार वे लोग हिरण्यक चूहे के विवर दुर्ग पर जा पहुंचे| हिरण्यक अपने उस विवर दुर्ग में निर्भय होकर निवास करते थे| उसने वहां से बाहर निकलने के अनेक द्वार बनाए हुए थे| वह समझता था कि जिस प्रकार विष के अभाव में सर्प और मद के अभाव में हाथी निष्प्रभाव हो सबके वशीभूत हो जाते हैं उसी प्रकार दुर्ग के अभाव में राजा भी शक्तिहीन होकर शत्रुओं द्वारा पराजित कर लिया जाता है| चित्रग्रीव ने उस दुर्ग के पास आकर उच्च स्वर में कहा, ‘मित्र हिरण्यक! शीग्र बाहर निकलकर आओ, मैं बड़ी विपत्ति में फंस गया हूं|’
चित्रग्रीव की बात सुनकर हिरण्यक ने भीतर से ही पूछा, ‘महाशय! आप कौन हैं ओर यहां किस प्रयोजन से आए हैं? आप पर किस प्रकार की विपत्ति आई है, कृपया स्पष्ट रूप से बताइए|’
चित्रग्रीव बोला, ‘मित्र! मैं आपका सखा कबूतरों का राजा चित्रग्रीव हूं| शीग्र बाहर निकालो, आपसे बड़ा कार्य है|’
चित्रग्रीव का नाम सुनकर मूषक बड़ा आनन्दित हुआ और तुरन्त अपने बिल से बाहर निकलकर आ गया| अपने मित्र की वह दशा देखकर उसके मुख से निकल गया, ‘यह तुमने क्या कर लिया?’
‘बस, कुछ न पूछो| जीभ की चपलता के कारण यह सहन करना पड़ा है अब आप शीघ्र मेरे बन्धन काट दीजिए|’
हिरण्यक कहने लगा, ‘वैसे तो पक्षी सौ सवा सौ योजन से भी मांस को देख लिया करते हैं किन्तु भाग्य प्रतिकूल होने पर समीप ही बिछाए गए जाल को भी आप लोग नहीं देख पाए|’
यह कहकर हिरण्यक चित्रग्रीव का पाश काटने के लिए उसकी ओर गया तो चित्रग्रीव बोला, ‘नहीं मित्र! पहले मेरे अनुचरों के पाश काट दो, उसके बाद मेरे पाश काट देना|’
हिरण्यक को कुछ रोष आ गया| उसने कहा ‘नहीं, यह ठीक नहीं| स्वामी के बाद ही भूत्यों का स्थान आता है|’
‘मित्र! ऐसी बात नहीं| ये सभी मेरे आश्रित हैं| ये सब अपने-अपने परिवारों को छोड़कर मेरे साथ आए हैं| मेरा यह कर्तव्य है जो राजा सदा अपने अनुचरों का सम्मान करता है उसके अनुचर सन्तुष्ट होकर विपत्तिकाल में भी उसका साथ नहीं छोड़ते और फिर ईश्वर न करे कि मेरा पाश काटते हुए यदि आपका दांत टूट गया अथवा अंत तक वह व्याध ही इधर आ निकला तब इनके बंधे रह जाने से तो मुझे नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा|’
हिरण्यक कहने लगा, ‘राजधर्म तो मैं भी जानता हूं| मैं केवल आपकी परीक्षा कर रहा था| अब मैं पहले आपके अनुचरों के पाश ही काटूंगा| अपने इस आचरण के कारण आप सदा बढ़ते ही रहेंगे|’
उसके बाद हिरण्यक ने सबके पाश काट दिए और फिर चित्रग्रीव से कहने लगा, ‘मित्र! अब तुम अपने अनुचरों को साथ लेकर अपने स्थान को जा सकते हो| जब भी इस प्रकार की कोई विपत्ति आ जाए तो मेरा स्मरण कर लेना|’
लघुपतनक नाम का वह कौआ यह सब दृश्य देखकर आश्चर्य-चकित हो उठा| उसने सोचा कि यह हिरण्यक बहुत बुद्धिमान है और इसने अपना दुर्ग भी बनाया हुआ है यद्यपि मैं सहसा किसी पर विश्वास नहीं करता तदपि मैं इस हिरण्यक को तो अपना मित्र बनाऊंगा| ऐसा विचार कर वह वृक्ष से नीचे उतरा ओर हिरण्यक के बिल के पास गया| चित्रग्रीव की ही भांति रसभीनी वाणी में उसने कहा, ‘मित्र हिरण्यक! बाहर आ जाओ| शीघ्र बाहर आओ|’
हिरण्यक सोचने लगा की क्या किसी कपोत का बंधन रह गया है? उसने पूछा, ‘आप कौन हैं?’
‘मैं लघुपतनक नाम का कौआ हूं|’
हिरण्यक सोचने लगा, न जाने यह कौन आ गया है| उसने स्वयं को और अन्दर को छिपाते हुए कहा, ‘तुम तुरन्त यहां से चले जाओ|’
‘नहीं नहीं| मैं आपके पास बहुत ही आवश्यक कार्य से आया हूं| आप मुझे अपना दर्शन तो दीजिए|’
‘किन्तु मैं तो आपसे मिलना नहीं चाहता|’
कौआ बोला, ‘मित्र! मैंने आपको चित्रग्रीव के बन्धन काटते हुए देखा है| उससे मेरे मन में आपके प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया है| कभी मेरे भी बन्ध जाएगी| मैं आपको अपना मित्र बनाना चाहता हूं| कृपया आप मेरी मित्रता स्वीकार कीजिए|’
हिरण्यक कहने लगा, ‘तुम भक्षक हो और मैं तुम्हारा भक्ष्य हूं| अत: तुम्हारे साथ मेरी मित्रता का लाभ ही क्या?’ विरुद्ध स्वभाव वालों की मित्रता नहीं हो सकती| इसलिए आप यहां से चले जाइए|’
कौआ बोला, ‘मित्र हिरण्यक! मैं तो अब आपके द्वार पर बैठ गया हूं| यदि आपने मित्रता नहीं की तो मैं यहीं पर अपने प्राण त्याग दूँगा| बस मैं आज से ही अपना अनशन व्रत आरम्भ कर रहा हूं|’
‘तुम मेरे शत्रु हो, शत्रु के साथ कोई किस प्रकार मित्रता कर सकता है? कहा भी है कि अत्यन्त घनिष्टता हो जाने पर भी शत्रु के साथ मित्रता नहीं करनी चाहिए| क्योंकि जल चाहे कितना भी गर्म क्यों न हो वह जब अग्नि पर पड़ता है तो अग्नि उसको बुझा ही देती है|’
कौआ बोला, ‘अभी तो मुझे आपका दर्शन भी नहीं मिला, अभी वैर कहां से आ गया?’
वैर दो प्रकार का होता है| स्वाभाविक और कृत्रिम| आप तो मेरे स्वाभाविक वैरियों में से हैं| सहज शत्रुता तो किसी प्रकार भी नहीं मिट सकती|’
‘कृपया तनिक दोनों प्रकार के वैरों के लक्षण तो बताइए|’
‘जो वैर किसी कारण से उत्पन्न होता है वह कृत्रिम कहलाता है, वह समाप्त होने योग्य उपकार से समाप्त हो जाता है| किन्तु स्वाभाविक वैर तो किसी भी स्थिति में समाप्त नहीं होता| जिस प्रकार नकुल और सर्प का, घास चरने वाले तथा मांस खानेवाले का, जल और अग्नि का, देव और दैत्यों का, कुत्तों और विडालों का, धनिकों और दरिद्रों का, सपत्नियों का, सिंहो ओर गंजों का, व्याघ्रों और हरिणों का, सज्जनों और दुर्जनों का| इनका वैर स्वाभाविक वैर कहलाता है|’
‘मैं इसे ठीक नहीं मानता| किसी के साथ मित्रता और शत्रुता तो कारण से ही की जाती है| अत: किसी से अकारण शत्रुता नहीं करनी चाहिए| यदि सम्भव हो तो इस संसार से सभी के साथ मित्रता करनी चाहिए| अत: मेरे साथ मित्रता करने के लिए आप एक बार बाहर निकलकर मेरे साथ भेंट तो कर ही लीजिए|’
‘इसका प्रयोजन ही क्या है? नीतिशास्त्र में कहा है कि एक बार भी मित्रता के टूट जाने के बाद जो व्यक्ति पुन: उसको सन्धि के द्वारा जोड़ने की इच्छा करता है वह गर्भ धारण करने वाली खच्चरी की भांति उसमें स्वयं ही विनष्ट हो जाता है| किसी को यह भी नहीं सोचना चाहिए कि मैं गुणवान हूं अत: कोई मेरा अनिष्ट नहीं कर सकता| व्याकरण शास्त्र के प्रणेता पाणिनी को सिंह ने मार डाला था, मीमांसाशास्त्र के पुर्वतक आचार्य पिंगलक को समुद्र के किनारे किसी ग्रा ने निगल लिया था| अज्ञानी और क्रूर को किसी के गुणों से क्या प्रयोजन?’
‘यह तो ठीक है परन्तु पारस्परिक उपकार से ही मनुष्यों में सन्धि होती है| मृगों और पक्षियों की मित्रता भी किसी कारण से हो जाती है, मूर्खों की मित्रता, भय और लोभ के कारण होती है, किन्तु सज्जनों की कमत्रता तो केवल दर्शनमात्र से ही हो जाती है| अत: विश्वास कीजिए, मैं सज्जन हूं तदपि शपथ आदि के द्वारा भी आपको विश्वास दिला सकता हूं|
‘आपकी शपथ पर मुझे विश्वास नहीं| कहा जाता है कि शपथपूर्वक मित्रता करने वाले शत्रु का भी कभी विश्वास नहीं करना चाहिए| क्योंकि इन्द्र ने शपथ करने के बाद ही वृत्रसुर का वध किया था| विश्वास के कारण उत्पन्न होने वाला भय मनुष्य के मूल को भी विनष्ट कर देता है|’
हिरण्यक की बात सुनकर लघुपतनक अपने मन में विचार हरने लगा कि हिरण्यक को नीतिशास्त्र का गहन ज्ञान है| उसने फिर कहा, ‘मित्र! विद्वानों ने कहा है कि एक साथ पद चलने या सात वाक्यों के प्रयोग से ही परस्पर मित्रता हो जाती है| अत: अब आप मेरे मित्र तो हो ही चुके हैं| अब आप मेरी बात को सुन लीजिए| यदि आपको मुझ पर विश्वास न हो तो आप आपने दुर्ग के भीतर से ही मेरे साथ वार्तालाप अथवा गोष्ठी कर लिया करना|’
हिरण्यक सोचने लगा, यह लघुपतनक बड़ा ही भाषणपटु और चतुर है| चलो, इसके साथ मैत्री की ही लूं| उसने कहा, ‘यदि मैत्री ही करना चाहते हैं तो आपको मेरा एक आग्रह मानना होगा| वह यह कि आप कभी मेरे दुर्ग के भीतर प्रविष्ट नहीं होंगे|’
लघुपतनक प्रसन्न होता हुआ कहने लगा, ‘आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा ही करूंगा|’
उस दिन से दोनों में मैत्री हो गई और सुभाषित गोष्ठियों का आनन्द लेते हुए उनके दिन बीतने लगे| कभी लघुपतनक अपने मित्र के लिए भोज्य पदार्थ ले आता तो कभी हिरण्यक उसके लिए भोज्य पदार्थ रख रखता| अधिक क्या कहा जाए जिस प्रकार उंगली के नख और मांस अविच्छिन होते हैं उसी प्रकार के मूषक ओर कौआ प्रगाढ़ मित्र बन गए| कालान्तर में तो मूषक बाहर निकलकर उस कौए के पंख के नीचे बैठकर उसके साथ गोष्ठी करने लगा|
एक दिन अश्रुपूर्ण नेत्रों से कोए ने मूषक से कहा, ‘मित्र! मुझे इस देश में विरक्ति हो गई है अब मैं कहीं अन्यत्र जाना चाहता हूं|’
‘आखिर इसका कारण क्या है?’
‘बात यह है कि अत्यधिक अनावृष्टि के कारण इस देश में अकाल पड़ गया है| अकाल के कारण जब लोग स्वयं ही भूखे रहने लगे हैं तो कौओं को बलि प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं उठता| लोगों की भूख इतनी बढ़ गई है कि अब घर-घर में पक्षियों को फंसाने के लिए पाश फैला दिए गए हैं| वह तो मेरी आयु के कुछ दिन शेष होंगे इसलिए मैं इस प्रकार उनसे बच कर निकल आया हूं| बस यही मेरी विरक्ति का कारण है| अपने घर से तो मैं विदेश के लिए निकलकर आ गया हूं|
‘कहां जाना चाहते हो?’
‘सुना है दक्षिण के एक देश में दुर्गम वन में एक सरोवर है| वहां मेरा घनिष्ट मित्र मन्थरक नाम का कछुआ रहता है| वह अपने सरोवर से मुझे मत्सय मांस खण्डों दिया करेगा| यहां रहकर मैं अपनी आंख से अपने साथी पक्षियों को जाल में फंसता नहीं देख सकता|’
हिरण्यक बोला, ‘यदि आपका यही विचार है तो मैं भी आपके साथ चलूंगा| मुझे भी यहां बड़ा कष्ट है|’
‘आपको यहां क्या कष्ट हे, जरा सुनूं तो?’
‘यह बड़ी लम्बी कहानी है| वहीं पहुंचने पर सुनाऊंगा|’
‘किन्तु, मैं तो आकाशगामी हूं, आप मेरे साथ किस प्रकार चलेंगे?’
‘यदि आप मुझे अपना मित्र समझते हैं तो मुझे अपनी पीठ पर ले चली अन्यथा मेरी कोई दूसरी गति नहीं है|’
कौए ने प्रसन्न होकर कहा, ‘वाह, ये तो मेरा सौभाग्य है| वहां रहकर आपके साथ सुख के दिन बीतेंगे| बस आप मेरी पीठ पर बैठ जाईए| मैं आराम से आपको वहां पहुंचा दूंगा|’
हिरण्यक बोला, ‘इससे पहले मैं उड्डयन की रीतियों के नाम सुनना चाहता हूं| वे कितनी प्रकार की होती हैं?’
उड़ने की आठ प्रकार की गतियाँ होती हैं -सम्पात, विपात, महापात, निपात, वक्रगति, तिर्यकगति, उर्ध्वगति तथा लघुगति|’ सब गतियों की व्याख्या कर दी|
इसके बाद हिरण्यक कौए की पीठ पर चढ़ गया| कौआ भी सम्पात गति से अर्थात् धीरे-धीरे उड़ता हुआ उसको लेकर उस सरोवर में पहुंच गया|
मन्थरक ने दूर से उसको इस प्रकार आते देखकर सोचा, यह तो कोई असाधारण प्रकार का कौआ है, वह डर गया और सरोवर में जाकर छिप गया|
वहां पहुंचकर लघुपतनक ने हिरण्यक का सरोवर के तट पर स्थित एक वृक्ष के वोटर में बैठा दिया और स्वयं उसकी शाखा पर चढ़कर जोर-जोर से अपने मित्र मन्थरक को पुकारना आरम्भ कर दिया| उसने उसको बताया कि वह उसका लघुपतनक नाम का मित्र है जो आज बहुत दिनों के बाद मिलने के लिए आया है| उधर कछुए ने जब भली-प्रकार कौए की बोली को पहचान लिया और यह भी देख लिया कि बोलने वाला उसका मित्र लघुपतनक ही है तो वह जल से बाहर निकल आया| उसने प्रसन्न होते हुए कहा, ‘आओ मित्र! आओ! बहुत दिनों से तुम्हें देखा नहीं था, इसलिए कोई और समझकर मैं जल में चला गया था|’
लघुपतनक वृक्ष से उतरकर उसके समीप गया ओर दोनों में परस्पर प्रगाढ़ आलिंगन हुआ| फिर वे उस वृक्ष की जड़ में बैठकर परस्पर कुशल-समाचार पूछने लगे| हिरण्यक भी वृक्ष से उतरकर, उनके समीप आकर बैठ गया| उसे देखकर मन्थरक ने पूछा, ‘मित्र! यह कौन है| तुम्हारा भक्ष्य होने पर भी तुम इसको अपनी पीठ पर लादकर लाए हो, इसमें क्या रहस्य है?’
‘मित्र! यह हिरण्यक नाम का चूहा मेरा मित्र ही नहीं मेरे द्वितीय प्राण के सम्मान है|’ इसके असंख्य गुण हैं| किसी कारण अपने स्थान से विरक्त होकर यह आपके पास चले आए हैं|’
‘इसके वैराग्य का क्या कारण है?’
‘मैंने इनसे कारण पूछा था| तब इन्होंने कहा था कि इस विषय में बहुत कहना है, यहां पहुंचने पर ही सारी बात बताएंगे|’
लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा, ‘अब तो आप सुरक्षित यहां पहुंच गए हैं, अब अपने वैराग्य का कारण बताइए|’
उनका आग्रह सुनकर हिरण्यक से कहना आरम्भ किया|