कुपात्र को उपदेश
किसी पर्वतीय प्रदेश में वानरों का एक समूह निवास करता था| एक वर्ष हेमन्त ऋतु में भयंकर वायु चलने लगी| उसके साथ ही वर्षा आरम्भ हुई और हिमपात भी होने लगा|
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ठंड से व्यथित होने के कारण वानर समूह शरण पाने के लिए इधर-उधर भटकता रहा किन्तु उनको कहीं भी कोई सुरक्षित स्थान नहीं मिल पाया| कुछ वानरों ने कहीं से लाल-लाल गुंजा के फल बीने ओर उनको एकत्रित कर उनके चारों ओर बैठ गए| उन्हें लगा कि ये अग्निकण है और अब इनके आश्रय उनकी ठण्ड मिट जाएगी|
सूचीमुख नाम का एक पक्षी उनकी इस व्यथा प्रयास को देख रहा था| उसने कहा, ‘लगता है तुम लोग निपट मुर्ख ही हो| ये अग्निकण नहीं, गुंजाफल हैं| इनसे ठंड नहीं मिटेगी| कहीं किसी सुरक्षित स्थान की खोज करो| किसी पर्वत-कन्दरा में जाकर छिप जाओ, वर्षा रुकने वाली नहीं है|
तब एक वानर बोला, ‘तुम्हें इससे क्या, तुम अपना रास्ता नापो|’
सूचीमुख कहीं गया और उनको बार-बार समझाता ही रहा| बार-बार उसकी बात को सुनकर एक वानर को क्रोध आ गया ओर उसने उसको पकड़कर वहीं शिला पर पटककर मार दिया|
यह कथा सुनकर करटक कहने लगा कि तभी मैंने कहा था कि अयोग्य को शिक्षा देने का कोई लाभ नहीं है| सर्प को दूध पिलाने से उसका विष बढ़ता हि है शान्त नहीं होता| एक बार एक मूर्ख चिड़िया ने एक वानर को उपदेश दिया तो उसने उसको ही गृहविहीन बना दिया|’