कार्य और कारण
एक बार की बात है कि वर्षाकाल आरम्भ होने पर अपना चातुर्मास्य करने के उद्देश्यय से मैंने किसी ग्राम के एक ब्राह्मण से स्थान देने का आग्रह किया था| उसने मेरी प्रार्थना को स्वीकार किया और मैं उस स्थान पर रहता हुआ अपनी व्रतोपसाना करता रहा|
एक दिन प्रात: उठने पर मुझे लगा कि ब्राह्मण और उसकी पत्नी में किसी प्रकार का विवाद उठ पड़ा है| मैं उसे ध्यानपूर्वक सुनता रहा|
ब्राह्मण अपनी पत्नी से कह रहा था, ‘आज सूर्यादय के समय कर्क संक्राति आरम्भ होने वाली है| यदि बड़ी फलप्रदा होती है| मैं तो दान लेने के लिए दूसरे ग्राम को चला जाऊंगा, तुम भगवान सूर्य को दान देने के उद्देश्य से किसी ब्राह्मधस को बुलाकर उनको भोजन करा देना|’
उसकी पत्नी बड़े कठोर शब्दों में उसको धिक्कारती हुई कहने लगी, ‘जैसे दरिद्र व्यक्ति के यहां भोजन मिलेगा ही कहां से? इस प्रकार की बात करते हुए तुम्हे लज्जा नहीं आती| इस घर में आने के बाद आज तक मैंने कभी कोई सुख नहीं पाया| न कभी मैंने यहां कोई मिष्ठान खाया और न कभी कोई आभूषण ही पहना|
अब इस समय इस प्रकार की बात करने से क्या लाभ? कहा भी गया है कि आपने ग्रास में से आधा ही सही, किन्तु याचक को देना चाहिए| अपनी इच्छा के अनुरूप ऐश्वर्य कब किसके पास होता है, वह कभी होगा भी नहीं| अत: जितनी भी हो सके दान करते रहना चाहिए| ‘कहा भी है –
मनुष्य को अधिक लोभ नहीं करना चाहिए| लोभ को सर्वथा त्याग भी नहीं देना चाहिए| अधिक लोभ करने वाले व्यक्ति के मस्तक में शिखा निकल आती है|