भूल का फल – शिक्षाप्रद कथा
रात में वर्षा हुई थी| सबेरे रोज से अधिक चमकीली धूप निकली|
बकरी के बच्चे ने माँ का दूध पिया, भर पेट पिया| फिर घास सूँघकर फुदका| गीली नम भूमि पर उसे कूदने में बड़ा मजा आया और वह चौकड़ीयाँ भरने लगा| पहले माता के समीप उछलता रहा और फिर जब कानों में वायु भर गयी तो दूर की सूझी|
माँ ने कहा – ‘बेटा! दूर मत जा| कहीं जंगल में भटक जायगा|’
वह थोड़ी दूर निकल गया था| उसने वहीं से कह दिया – ‘मैं थोड़ी देर में खेल-कूदकर लौट आऊँगा| तू मेरी चिन्ता मत कर| मैं रास्ता नहीं भूलूँगा|’
माता मना करती रही, लेकिन वह तो दूर जा चुका था| उसे अपनी समझ पर अभिमान था और माता के मन करने पर उसे झुँझलाहट भी आयी थी|
वह कूदने में मस्त था| चौकड़ी लगाने में उसे रास्ते का पता ही नहीं रहा| उसने जंगल को देखा और यह सोचकर कि थोड़ी दूर तक आज जंगल भी देख लूँ, आगे बढ़ गया| सचमुच वह जंगल में भटक गया और इसका पता उसे तब लगा, जब वह कूदते-उछलते थक गया| जब उसने लौटना चाहा तो उसे रास्ते का पता ही नहीं था| वह कँटीली घनी झाड़ियों के बीच रास्ता ढूँढने के लिये भटकता ही रहा|
‘अरे, तू तो बहुत अच्छा आया| मुझे तीन दिन से भोजन नहीं मिला है|’ पास की झाड़ी से एक बड़ा-सा भेड़िया यह कहते हुए निकल पड़ा|
बकरी के बच्चे को न तो उत्तर देने का अवकाश मिला और न रोने का| उसे केवल मन में अपने मालिक गड़ेरिये की एक बात स्मरण आयी –
मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ|
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ||