भक्ति का चमत्कार (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
ऋषि उपमन्यु बड़े प्रेम-व्रती थे| दिन-रात अपने प्रेम के प्रसून शिवजी के चरणों पर चढ़ाया करते थे| न खाने की सुधि, न विश्राम की चिंता| वृक्षों से गिरे हुए फल ही उनका भोजन था, धरती ही उनकी शैया थी और अंबर ही उनके लिए छाया के समान था|
एक बार उपमन्यु परिभ्रमण के लिए निकले| वे घूमते-घूमते समुद्र के तट पर गए| समुद्र में ऊंची-ऊंची लहरें उठ रहीं थीं, भैरव गर्जन हो रहा था| उपमन्यु को वे लहरें प्रकृति के कोमल हाथों के समान लगीं और वह भैरव गर्जन मधुर संगीत के समान लगा| उन्होंने सोचा – ‘यह स्थान बड़ा मनोरम है| बस, यहीं ताप करना चाहिए|’ यह सोचकर उपमन्यु समुद्र के तट पर बालू के कणों के ऊपर आसन बिछाकर बैठ गए और शिव के ध्यान में मग्न हो गए|
कई वर्षों तक उपमन्यु का तप चलता रहा| उनके अखंड तप को देखकर देवराज इंद्र आकुल हो उठे| उन्होंने सोच – ‘कहीं ऐसा न हो कि उपमन्यु अपने तप की शक्ति से स्वर्ग पर अपना अधिकार जमा लें|’ इंद्र के मन में ईर्ष्या जाग उठी| वे उपमन्यु के तप को डिगाने के लिए कुबेर को साथ लेकर चल पड़े| दोनों विचित्र वेष बनाकर समुद्र-तट से कुछ दूरी पर ही थे कि उन्हें दो और मनुष्य दिखाई पड़े, जो उन्हीं के समान वेश धारण किए हुए थे| वे मन ही मन सोचने लगे – ‘ये दोनों कौन हैं और कहां जा रहे हैं?’
तभी देवराज इंद्र के कानों में डमरू की ध्वनि सुनाई पड़ी| उन्होंने डमरू की ध्वनि को सुनकर सोचा – ‘अवश्य यह शिव की माया है| स्वयं शिव ही इन दोनों मनुष्यों के रूप में प्रकट हुए हैं| यह उपमन्यु की दृढ़ता की परीक्षा लेना चाहते हैं| छिपकर देखना चाहिए, यह क्या करते हैं?’
वे दोनों मनुष्य समुद्र तट पर उपमन्यु के निकट उपस्थित हुए| उन्होंने अपना विचित्र वेश बना लिया था| एक के मस्तक पर मोर पंखों का मुकुट था और दूसरे का मुख आधा मनुष्य और आधा सिंह के समान था| मोर-पंखों के मुकुटधारी मनुष्य ने उपमन्यु को अपना परिचय देते हुए कहा – “मैं देवराज इंद्र हूं और मेरे साथ जो हैं, वे कुबेर हैं| मैं आपके तप से प्रसन्न हूं| मैं आपको स्वर्ग का वैभव देने के लिए आया हूं|”
उपमन्यु ने कहा – “देवराज! मुझे शिव के प्रेम को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए| आपने दर्शन देकर मुझे कृतार्थ किया, यही बहुत है|”
देवराज इंद्र ने उपमन्यु को डिगाने के उद्देश्य से पुन: कहा – “मुने! मैं देवराज इंद्र कुबेर के साथ आपको कुछ देने के लिए खड़ा हूं| आप राज्य, वैभव, महल-जो चाहें मांग लीजिए| मेरे लिए आपको कुछ भी अदेय नहीं है|”
उपमन्यु कुछ उत्तर दे पाते, उसके पूर्ण ही माया के इंद्र के कुबेर की ओर देखते हुए कहा – “कुबेर! महामुने के लिए इस रेती में स्वर्ण महल बना दीजिए| ऐसा महल जिसकी बराबरी का तीनों लोकों में कोई एनी महल न हो|”
यह कहकर माया के कुबेर ने अपना हाथ ऊपर उठाया| देखते ही देखते समुद्र के तट पर दिव्य स्वर्ण महल बनकर तैयार हो गया| ऐसा महल, जो सभी प्रकार के सुखों और वैभव से परिपूर्ण था| माया के इंद्र ने उपमन्यु की ओर देखते हुए कहा – “महामुने! यह स्वर्ण महल आपके लिए ही है| बालू के कणों से उठकर महल में निवास कीजिए, सभी प्रकार के सुखों का उपभोग कीजिए|”
उपमन्यु ने कहा – “देवराज! मैं आपकी कृपा से कृतज्ञ हूं, पर मुझे शिव जी के प्रेम को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए| मेरे लिए बालू के ये कण ही कोमल शैया के समान हैं| धरती ही मेरा बिस्तर है और आकाश का वितान ही मेरा घर है|”
यह सुनकर माया के इंद्र की भौंहें टेढ़ी हो गईं| उन्होंने क्रोध भरे स्वर में कहा – “महामुने! आप मेरा अपमान कर रहे हैं| मैं स्वर्ग का अधिपति हूं और आपके शिव हैं श्मशानवासी| मेरे पास स्वर्ग का वैभव है, जबकि आपके नंग-धड़ंग शिव के पास कुछ नहीं है| आप मेरे दिए हुए वैभव को स्वीकार करें, नहीं तो मैं वज्र से आपका मस्तक काटकर फेंक दूंगा|”
यह कहकर माया के केंद्र ने हाथ ऊपर उठाया और चमचमाता हुआ वज्र उनके हाथ में आ गया| पर उपमन्यु रंचमात्र भी विचलित और भयभीत नहीं हुए| दृढ़तापूर्वक बोले – “देवराज! मैं सब कुछ सुन सकता हूं, पर अपने आराध्यदेव शिव की निंदा नहीं सुन सकता| आपको अपने वज्र का अभिमान है, तो मुझे भी शिव जी के प्रेम का बल है| मैं अभी प्रेम की शक्ति से आपके वज्र को खंड-खंड किए देता हूं|”
यह कहकर उपमन्यु ने कमंडल का जल हाथ में लिया| वे शिव के ध्यान में डूबकर हाथ का जल वज्र पर फेंकना ही चाहते थे कि शिव जी अपने असली रूप में प्रकट हो गए| उन्होंने कहा – “बस कीजिए महामुने! बस कीजिए| मैं आपके प्रेम पर मुग्ध हूं| आपने अपने प्रेम से मुझे जीत लिया है| अब आप मेरे साथ मेरे गण के रूप में रहें|”
उपमन्यु प्रेम से गद्गद होकर शिव के चरणों में लोट गए| शिव ने उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगा लिया| देवराज इंद्र और कुबेर जो अभी तक छुपे हुए थे, प्रकट हो गए और सम्मिलित स्वरों में शिव का ‘जयनाद’ करने लगे|
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