रहमदिल चोर – शिक्षाप्रद कथा
पुराने ज़माने में रोहतासगढ़ में कन्हैया नाम का एक किसान था, जिसके पास बहुत थोड़ी सी ज़मीन थी,
जिसकी फसल से उसके परिवार की गुजर-बसर नहीं होती थी, इसलिए घर चलाने के लिये वह अक्सर चोरियाँ भी करता था। वह एक शातिर चोर था, लेकिन उसने अपने नगर में कभी किसी घर में चोरी नहीं की।
वह हमेशा पड़ोसी नगरों और पड़ोसी राज्यों में चोरी के लिये जाया करता था और महीने में केवल एक ही बार अमावस की रात चोरी किया करता था। जब भी वह चोरी करने के लिये निकलता चमड़े की एक छोटी और एक बड़ी मशक में पीने का पानी और चार पराँठे साथ लेकर निकलता था, जिससे चोरी करने की अवधि लम्बी हो जायें और कहीं खाने को न मिले तो भूखे मरने की नौबत न आये।
छोटी मशक और पराँठे वह हमेशा साथ रखता था, जबकि बड़ी मशक घोड़े दिलदार की पीठ से मज़बूती से बंधी रहती थी। छोटी मशक में भी इतना पानी होता था कि थोड़ा-थोड़ा पीकर एक दिन गुजारा जा सकता था।
एक अमावस के दिन वह शाम को ही अपने घोड़े दिलदार पर सवार हो किसी दूर के गाँव या शहर में चोरी के ख्याल से निकला। रात होने तक वह एक छुटमलपुर नामक गाँव में पहुँच गया।
गाँव में चारों तरफ सन्नाटा था। कन्हैया ने अपने घोड़े को एक सुरक्षित स्थान पर छोड़ दिया। उसका घोड़ा पालतू और वफादार था और कन्हैया जब होंठ सिकोड़कर जब अपने विशेष ढंग से सीटी बजाता, घोड़ा कहीं भी हो, पलक झपकते ही कन्हैया के निकट आ जाता।
कन्हैया को लगा कि आज उसे चोरी करने में कोई परेशानी नहीं होगी और मोटा माल भी हाथ लगेगा। बहुत देख-भाल कर उसने एक घर छाँटा, जहाँ से उसे काफी कीमती सामान मिलने की आशा थी। उसने चारों ओर से घर का निरीक्षण किया। फिर एक स्थान से दीवार लाँघकर घर में घुसने का इरादा किया, लेकिन एक बार फिर हर तरफ का निरीक्षण करने के उद्देश्य से घर के सामने आया ही था कि तभी उसे लगा कोई उसे आवाज़ दे रहा है -:कन्हैया।”
तभी वातावरण में तेज़ हवाएँ चलने से कन्हैया को लगा कि उस मकान का मुख्य द्वार हिला है। वह आगे बढ़ा और उसने द्वार पर हाथ रखा तो द्वार के कपाट अन्दर खुलते चले गये।
घर का मुख्य दरवाज़ा अन्दर से बन्द नहीं था। कन्हैया धीमे कदमों से घर के अन्दर प्रविष्ट हो गया। अन्दर घुप्प अन्धेरा था, लेकिन कन्हैया एक मँजा हुआ चोर था। उसकी आँखें अन्धेरे में देखने की भी पक्की अभ्यस्त थीं।
उसने उस कमरे को अच्छी तरह देखा। वहाँ कोई न था। कमरा बिल्कुल खाली था । एक द्वार कमरे की दाहिनी दीवार में दिखाई पड़ रहा था, उसकी अन्दरूनी अवस्था बता रही थी कि वह उस घर की रसोई का स्थान है, लेकिन रसोई बिल्कुल खाली थी। ।
उसमें कुछ भी नहीं था। दो द्वार कमरे की बायीं दीवार में थे, जो क्रमशः शौच और स्नानगृह के थे। उस कमरे के अन्तिम छोर पर दायें-बायें दो अन्य अन्दरूनी कमरों के द्वार दिख रहे थे।
कन्हैया ने पहले एक कमरे में झाँका। वह भी बिल्कुल खाली था, लेकिन दूसरे कमरे से बहुत ही धीमी-धीमी आवाज़ आ रही थी -“कन्हैया…कन्हैया……।”
कन्हैया आवाज़ वाले कमरे की ओर बढ़ गया। सामान तो उस कमरे में भी नाम मात्र था, लेकिन कमरे के आखिरी कोने में एक पलंग बिछा हुआ था, जिस पर कोई कृशकाय बूढ़ा लेटा हुआ ‘कन्हैया-कन्हैया’ पुकार रहा था।
कन्हैया उस बूढ़े के पास पहुँचा। किसी के आने की आहट सुनकर बूढ़ा बोल उठा -“कन्हैया, तू आ गया बेटे। कहाँ चला गया था। बहुत प्यास लगी है। थोड़ा पानी पिला दे और फिर कुछ खाने को भी दे दे – बहुत भूख भी लग रही है।”
कन्हैया ने आसपास देखा – कहीं भी कोई गिलास या लोटा दिखाई नहीं दिया। उसने लेटे हुए बूढ़े को सहारा दे, उठाकर बैठाया और अपनी पीठ से छोटी मशक उतार, उसके ऊपरी और छोटे सिरे पर लगे चमड़े के ही ढक्कन को हटाकर मशक का गोल छेद बूढ़े के मुँह से लगा दिया।
बूढ़ा न जाने कब से प्यासा था, वह गट-गट पानी पीता चला गया। कुछ क्षण पश्चात जब उसने मशक से मुँह हटा लिया तो कन्हैया ने अपनी कमर में बन्धी पराँठों की पोटली खोलकर उसमें से एक पराँठा बूढ़े को थमा दिया।
“सब्ज़ी नहीं है ?” बूढ़े ने पूछा।
“नहीं, नमक अजवायन के पराँठे हैं।” कन्हैया बोला।
उसकी आवाज़ सुनते ही बूढ़ा पराँठा मुँह तक ले जाते-जाते रुक गया।
“कौन हो तुम ? तुम तो मेरे बेटे कन्हैया नहीं हो।” बूढ़े ने कहा।
“नहीं, मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूँ, लेकिन संयोगवश मेरा नाम भी कन्हैया है।” कन्हैया ने कहा।
:तुम कौन हो और मेरे घर में क्या कर रहे हो ?” बूढ़े ने पूछा।
“मैं एक चोर हूँ और आपके घर में चोरी करने के लिये आया था, लेकिन घर तो शायद पूरी तरह खाली है। ” कन्हैया ने कहा।
“क्या कहते हो ? घर खाली है। तो क्या सब प्लेग के डर से घर खाली करके दूसरे गाँव में भाग गये। मुझे अकेला छोड़ गये – मरने के लिये, लेकिन मुझे तो केवल साधारण बुखार हुआ था।” बूढ़ा लगभग आश्चर्य प्रकट कर, चिल्लाता हुआ बोला।
“मुझे नहीं पता, लेकिन घर में कोई नहीं है।” कन्हैया ने कहा।
“हे भगवान ! मेरा बेटा-बहू-पोता-पोती सब मुझे मरने के लिये छोड़कर भाग गये।” बूढ़ा रोने लगा।
“माफ़ करना चचा, मैं यहाँ चोरी करने आया था, लेकिन अब जबकि मुझे मालूम है कि मुझे आपके घर से कुछ नहीं मिलना, मेरा इस घर में रुकना व्यर्थ है। यदि आपको कोई और कष्ट है तो मुझे बतायें, मेरे लिये सम्भव हुआ तो मैं आपकी मदद अवश्य करूँगा, अन्यथा हाथ जोड़कर विदा चाहूँगा।” कन्हैया ने हाथ जोड़, उस बूढ़े से कहा और वहाँ से जाने का उपक्रम किया।
:नहीं, रुको ! मत जाओ, ठहरो।” बूढ़े ने उसका एक हाथ थाम लिया और बोला -“मुझे तुम अपने साथ ले चलो।”
“कैसी बातें करते हो चचा। मैं एक चोर हूँ और चोरी करने जा रहा हूँ और आपको साथ ले चलूँगा तो चोरी क्या ख़ाक करूँगा।” कन्हैया हाथ छुड़ाने का प्रयास करते हुए बोला।
“मुझे अपने साथ ले चलोगे तो तुम्हें जीवन में कभी चोरी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।” बूढ़े ने कहा।
“अजीब बात है, आपको साथ ले चलूँगा तो मेरे सिर पर आपको रखने और खिलाने-पिलाने का भी बोझ बढ़ जायेगा और आप कह रहे हैं मुझे जीवन में कभी चोरी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मुझे तो यह भी समझ नहीं आ रहा है कि आपके बेटा-बहू, पोता-पोती इस घर में अकेला छोड़कर कहाँ भाग गये ? इतना खूबसूरत घर है – भला ऐसा घर छोड़कर भी कोई पलायन करता है।”
“तुम निडर होकर मेरे पास बैठो, मैं तुम्हें सारी बात बताता हूँ।” बूढ़े ने बताना आरम्भ किया -“इस गाँव में प्लेग की महामारी फ़ैली है, जो चूहों के अकस्मात बड़ी संख्या में मरने से फैलती है और इन्सानों को भी अपनी लपेट में ले लेती है। इस बीमारी में गाँव के गाँव उजड़ जाते हैं और गाँव के लोग जान बचाने के लिये गाँव छोड़, दूसरे गाँव में चले जाते हैं। मेरा घर वीरान है, इसका मतलब है -पूरा गाँव वीरान होगा और तुम्हें इस गाँव के किसी भी घर में कुछ भी नहीं मिलेगा। संयोगवश मुझे इन्हीं दिनों लू लगने से साधारण बुखार हो गया था। मैंने दुनिया देखी है, जानता हूँ – मुझे प्लेग की महामारी ने नहीं जकड़ा था, बल्कि मैं साधारण बुखार का शिकार था। मैंने अपने बेटे कन्हैया और बहू रेवती तथा पोता-पोती को यह समझाया भी था, लेकिन वे लोग बुखार के कारण अर्धबेहोशी अथवा नींद की अवस्था में मुझे अकेला छोड़कर भाग गये। ऐसे सम्वेदनाहीन परिवार के साथ रहकर अब मैं अपना बुढ़ापा नहीं काटना चाहता। बेशक तुम एक चोर हो, लेकिन तुम्हारे सीने में एक बहुत खूबसूरत रहमदिल दिल है। तुम घर खाली देखकर भागे नहीं, बल्कि मेरी पुकार सुनकर रुक गये और अपने हिस्से का खाना-पानी भी मुझे दिया। अब मैं अपना बाकी जीवन तुम्हारे साथ ही बिताना चाहता हूँ।”
बूढ़े का आख़िरी वाक्य सुन कन्हैया ने हाथ जोड़ दिये और बोला -“मुझे माफ़ करो चचा। मैं रोहतासगढ़ का एक बहुत शरीफ व्यक्ति हूँ। महीने में एक ही बार चोरी के लिये निकलता हूँ, रोहतासगढ़ में लोग मुझे मेहनत मज़दूरी करने वाले किसान के रूप में जानते हैं, लेकिन मेरे पास इतनी कम ज़मीन है कि उसमें उपजी फसल से घर का गुजारा सम्भव नहीं होता, इसीलिये चोरी करता हूँ। तुम्हें साथ ले भी जाऊँ तो तुम्हारा खर्चा नहीं उठा सकूँगा।”
“मेरा खर्चा उठाने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं पड़ेगी, बल्कि मैं तुम्हें इतना धन दूँगा कि तुम्हें फिर कभी चोरी करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।” बूढ़े ने कहा।
“आपकी बात मेरी समझ में नहीं आई चचा। आपका घर खाली नज़र आ रहा है। यहाँ रुपया-धेला-जेवर कुछ भी नहीं है। आप मुझे कहाँ से कुछ देंगे ?” कन्हैया बूढ़े की बातों से कुछ खिन्न-सा होकर बोला।
बूढ़ा मुस्कुराया -“तुमने कभी कोबरा चोर का नाम सुना है ?”
“कोबरा चोर……।” कन्हैया याद करते हुए बोला -“ऐसे एक चोर की पच्चीस-तीस साल पहले बड़ी धूम थी। सुना था – वह जहाँ भी चोरी के लिये जाता, अपने साथ एक कोबरा नाग को लेकर जाता था।”
“हाँ, वह नाग मेरा पालतू नाग था, जिससे डरकर लोग घर से तितर-बितर हो जाते थे और मैं आराम से चोरियाँ कर लेता था। कोबरा नाग से डरकर भागे लोग कभी मेरा चेहरा भी नहीं देख पाये, इसलिए मैं कभी पकड़ा नहीं गया।” बूढ़े ने कहा।
“आप एक चोर थे ?” कन्हैया ने अविश्वास से बूढ़े को देखा।
“हाँ, मेरा असली नाम भोलाराम है और अपने गाँव में बहुत भोला-भाला आदमी समझा जाता हूँ, लेकिन जवानी में मैंने बेशुमार चोरियाँ कीं और बेपनाह दौलत इकट्ठी की, लेकिन मेरी एक आदत थी, जब भी मैं चोरी करता था। चोरी का आधा माल अपने एक गुप्त अड्डे पर छिपा देता था और केवल आधा ही माल घर पर लाता था। दरअसल ऐसा मैं इसीलिये करता था कि कभी मेरा बेटा मेरे प्रति अपनी जिम्मेदारी भूल जाये तो मुझे धन-दौलत और रोटी-पानी का मोहताज़ न होना पड़े और आज वो दिन आ गया है। मैं अपना सारा धन तुम्हारे हवाले कर दूँगा। उससे तुम सैकड़ों एकड़ ज़मीन खरीदकर ढेरों नौकर-चाकर रखकर खेती कर सकोगे। फिर तुम्हें कभी भी चोरी करने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी।”
कन्हैया ने अपने बचपन में कोबरा चोर की बहुत से कहानियाँ सुनी थीं, इसलिये वह भोलाराम पर अविश्वास नहीं कर सका।
भोलाराम कन्हैया को छुटमलपुर के नज़दीकी जंगल की एक गुफा में ले गया, जहाँ उसने ज़मीन में बहुत सारा धन गाड़ रखा था। भोलाराम ने कन्हैया के साथ खुदाई करके वह सारा धन निकाल लिया और फिर वह धन भोलाराम ने कन्हैया के हवाले कर दिया।
धन इतना ज्यादा था कि बहुत जल्दी ही कन्हैया ने सैकड़ों एकड़ ज़मीन खरीद ली और उस पर खेती करके आराम से दिन व्यतीत करने लगा। भोलाराम को कन्हैया के बच्चे दादाजी का सम्मान देने लगे।
और अच्छा-खाने-पीने से बूढ़े भोलाराम की सेहत इतनी अच्छी हो गयी कि वह कन्हैया के पालतू घोड़े दिलदार पर दिन भर सैर करता रहता था और रात को कन्हैया के बच्चों को कहानियाँ सुनाया करता था।
MORAL:
आप कुछ भी काम करते हों – दूसरों के प्रति दया की भावना और इन्सानियत कभी नहीं भूलनी चाहिये। अशक्त और बीमार व्यक्ति की सेवा करने से कभी मुँह नहीं मोड़ना चाहिये। न जाने कब आपकी कौन सी अच्छाई आपका भाग्य बदल दे।