Homeअतिथि पोस्टक्या इस सृष्टि के रचनाकार परमपिता परमात्मा का अस्तित्व है?

क्या इस सृष्टि के रचनाकार परमपिता परमात्मा का अस्तित्व है?

क्या इस सृष्टि के रचनाकार परमपिता परमात्मा का अस्तित्व है?

क्या इस सृष्टि के रचनाकार परमपिता परमात्मा का अस्तित्व है?

आज मानव जाति अनेक समस्याओं, कुरीतियों तथा मूढ़ मान्यताओं से पीड़ित तथा घिरा हुआ है। मनुष्य परमात्मा के दर्शन भौतिक आंखों से करना चाहता है। आज धर्म का स्थान बाहरी कर्म-काण्डों ने ले लिया है। हम सभी जानते हैं कि अध्यात्म भारतीय संस्कृति का प्राण तत्व है। अध्यात्म अनुभव का क्षेत्र है और इसकी प्रक्रियाओं व वैज्ञानिक प्रयोगों को प्रत्यक्ष दिखाया नहीं जा सकता, जैसे- हम वायु को देख नहीं सकते, केवल अनुभव कर सकते हैं, ठीक उसी तरह अध्यात्म के वैज्ञानिक प्रयोग स्थूलजगत में देखे नहीं जा सकते, केवल उनके परिणामों को देखा जा सकता है।

इस सृष्टि में पदार्थ और चेतना दोनों साथ-साथ मिलकर कार्य करते है:

अध्यात्म चेतना का विज्ञान है। भौतिक विज्ञान की सीमाएँ जहाँ समाप्त होती हैं, वहाँ से अध्यात्म विज्ञान की शुरूआत होती है। इस सृष्टि में पदार्थ और चेतना अर्थात प्रकृति व पुरूष, दोनों साथ-साथ मिलकर कार्य करते हैं। जैसे हमारे शरीर में जब तक पुरूष रूपी जीवात्मा है तब तक प्रकृति के पंचतत्वों से बना यह शरीर जीवित है। जीवात्मा के शरीर से पृथक होते ही पंचतत्वों से बना यह शरीर निर्जीव व निष्क्रिय हो जाता है। आज के वर्तमान समय में विज्ञान जहाँ भौतिक जगत का प्रतिनिधित्व कर रहा है, वहीं अध्यात्म चेतना जगत का प्रतिनिधित्व कर रहा है। विज्ञान वह है, जो इंद्रियों के द्वारा जाना-समझा जाता है; जबकि अध्यात्म विश्वास, समर्पण व आत्मानुभूति द्वारा जाना जाता है। इसे वास्तव में चेतना का विज्ञान कह सकते हैं और इस चेतना का जितना विकास होगा, हमारी प्रकाशित बुद्धि व विवेक उसी मात्रा में जाग्रत होती जायेगी।

अध्यात्म व विज्ञान, दोनों का ही उद्देश्य सत्य को जानना है:

जीवन को समग्र रूप से जानने व जीवन जीने के विज्ञान को भी अध्यात्म कह सकते हैं। अध्यात्म व विज्ञान, दोनों का ही उद्देश्य सत्य को जानना है, लेकिन दोनों एकदूसरे के बिना अधूरे हैं। यदि विज्ञान अध्यात्म को नकारता है, उसके निर्देशन व मार्गदर्शन की अवज्ञा करता है तो यह विनाशकारी होगा और यदि अध्यात्म विज्ञान का सहारा नहीं लेता तो इसे प्रामाणिक रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता और यह अंधविश्वास व मूढ़ मान्यताओं के जैसा प्रतीत होगा। हमारा मानना है कि यदि अध्यात्म और विज्ञान दोनों मिलकर आगे बढ़े तो निश्चित रूप से अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं और सृष्टि के लिए कल्याणकारी व मानव-विकास के पथ को प्रशस्त कर सकते हैं। यदि इन दोनों ने मिलकर कार्य किया तो भविष्य में ‘वैज्ञानिक अध्यात्मवाद’ एक नूतन दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित होगा; जिससे मानव जीवन का परम कल्याण संभव है।

परम सत्य का अनुभव सागर जैसा है:

परमात्मा का अनुभव कहने की बात नहीं है, बस, प्रतिक्षण उसे जिया ही जा सकता है। उस परम अनुभूति में स्वयं को डुबोया जा सकता है, सराबोर किया जा सकता है। लहर सागर में है और सागर भी लहर में है, फिर भी इस कथन में एक रहस्य है- पूरी की पूरी लहर तो सागर में हैं, पर पूरा का पूरा सागर लहर में नहीं है। अनुभव-खासतौर पर परम सत्य का अनुभव सागर जैसा है और अभिव्यक्ति तो बस, लहर जैसी है, जो थोड़ी सी खबर लाती है, लेकिन अनंत गुना अनुभव का सच पीछे छूट जाता है।

शब्द परमात्मा के अस्तित्व को नहीं बाँध सकते:

वैसे भी शब्द परमात्मा के अस्तित्व को नहीं बाँध सकते। इनकी सीमा में अनंत नहीं समा सकता। शब्द तो बस, छोटी-छोटी खिड़कियों की तरह हैं; जबकि परमात्मा के अस्तित्व के अनुभव का, सत्य के स्वरूप व प्रेम का आकाश अनंत है, असीम है। हाँ! यह सच है कि खिड़की से भी वही आकाश झाँकता है, लेकिन खिड़की को आकाश समझ लेना भारी भूल है, बड़ी गलती है। जो यह भूल कर बैठते हैं, वे कभी भी सीमाओं के कारागृह से मुक्त नहीं हो पाते। खिड़कियों से आकाश बहुत बड़ा है, ठीक उसी तरह से, जिस तरह शब्दों की तुलना में परमात्मा के अस्तित्व का अनुभव अति व्यापक एवं विशिष्ट है।


सभी पवित्र ग्रन्थ परमात्मा के अनुभव की ओर इशारा करते हैं:

शब्द से प्यास जगे, शब्द से परमात्मा को साधने की शुरूआत हो, यहाँ तक बात ठीक है, लेकिन शब्द को साधना की संपूर्णता मान लिया जाए, शब्द में तृप्त हो लिया जाए, यह उचित नहीं है। शब्द को सब कुछ समझ लेने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। शब्द में इशारे हैं, संकेत हैं, इंगित है। इनमें आगे बढ़ने की सूचना है, जो आगे बढ़ चलता है, वही इनके अर्थ को जान पाता है। शब्द चाहे बाइबिल के हों या वेद के, कुरान, त्रिपटक, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे-अकदस के हों या जेन्द-अवेस्ता के, सभी परमात्मा के अनुभव की ओर इशारा करते हैं।


परमात्मा के पुत्र होने के नाते हमारा धर्म अर्थात कर्तव्य भी लोक कल्याण है:

परमात्मा का अनुभव तो अतिव्यापक और परम विराट है। ऐसा नहीं है कि जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा नहीं। उन्होंने खूब कहा, बार-बार कहा, फिर भी जो कहना चाहते थे, वह नहीं कह पाए। इसीलिए उन्होंने अपनी सारी कथनी के निष्कर्ष में बस इतना ही कहा कि जो मैंने अनुभव करके जाना, उसे तुम अनुभव करके जान सकते हो। परमात्मा के अस्तित्व का अनुभव कुछ ऐसा है, जिसे कागद की लेखी नहीं, आँखिन की देखी ही समझा सकती है। परमात्मा इस सृष्टि का रचनाकार है उसका धर्म लोक कल्याण है। परमात्मा के पुत्र होने के नाते हमारा धर्म अर्थात कर्तव्य भी लोक कल्याण है। हमें पूरा विश्वास है कि मानव जाति का हित परमपिता परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकारने में ही निहित है।

– डा. जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं
संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ