सुख दुःख की महिमा – कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित
सुख दुःख की महिमा: संत कबीर दास जी के दोहे व व्याख्या
कबहु न छाडै संग |
रंग न लागै और का,
व्यापै सतगुरु रंग ||
व्याख्या: सभी सुख – दुःख अपने सिर ऊपर सह ले, सतगुरु – सन्तो की संगर कभी न छोड़े | किसी ओर विषये या कुसंगति में मन न लगने दे, सतगुरु के चरणों में या उनके ज्ञान – आचरण के प्रेम में ही दुबे रहें |
दुरहि ते दीसन्त |
तन छीना मन अनमना,
जग से रूठि फिरंत ||
व्याख्या: गुरु कबीर कहते हैं कि सतगुरु ज्ञान के बिरही के लक्षण दूर ही से दीखते हैं | उनका शरीर कृश एवं मन व्याकुल रहता है, वे जगत में उदास होकर विचरण करते हैं |
साधुन सो अधिन |
कहैं कबीर सो दास है,
प्रेम भक्ति लवलीन ||
व्याख्या: जिसके ह्रदे में सेवा एवं प्रेम भाव बसता है और सन्तो कि अधीनता लिये रहता है | वह प्रेम – भक्ति में लवलीन पुरुष ही सच्चा दास है |
मैं दासन का दास |
अब तो ऐसा होय रहूँ,
पाँव तले कि घास ||
व्याख्या: ऐसा दास होना कठिन है कि – “मैं दासो का दास हूँ | अब तो इतना नर्म बन कर के रहूँगा, जैसे पाँव के नीचे की घास ” |
सबही बन्धन तोड़ |
कहैं कबीर वा दास को,
काल रहै हथजोड़ ||
व्याख्या: जो सभी विषय – बंधनों को तोड़कर सदैव सत्य स्वरुप ज्ञान की स्तिति में लगा रहे | गुरु कबीर कहते हैं कि उस गुरु – भक्त के सामने काल भी हाथ जोड़कर सिर झुकायेगा |