हम गुम हूए – काफी भक्त बुल्ले शाह जी
अब हम गुम हूए गुम हूए,
प्रेम नगर के सैर| टेक|
अपने आप नूं सोध रहा हूं,
न सिर हाथ न पैर|
कित्त्थे पकड़ लै चले घरां थीं,
कौण करे निरवैर|
ख़दी खोई अपणा अपचीना,
तब होई कुल ख़ैर|
बुल्ल्हा साईं दोहीं जहानी,
कोई न दिसदा ग़ैर|
हम गुम हुए
प्रेम-मार्ग में साधक का अपनाया समाप्त हो जाता है| इसे ही लक्ष्य करके इस काफ़ी में कहा गया है कि अब हम प्रेम-नगर शहर में गुम हो गए हैं|
अब स्थिति यह है कि मैं अपने-आप को ढूंढ़ रहा हूं, लेकिन सिर, हाथ या पांव – कुछ नहीं मिलता|
अरे भाई, मुझे अपने घर से पकड़कर कहां ले चले हो| तुम्हें बैर से मुक्त कौन करे?
जब अहं खो दिया तभी अपने-आप को पहचान पाया| अपनी पहचान होने पर सर्वत्र कुशल-ही-कुशल है|
बुल्लेशाह के लिए तो लोक और परलोक में एक ही स्वामी है, उसे अब कोई भी ग़ैर नहीं दीखता|