द्रौपदी की क्षमाशीलता
सम्पूर्ण कक्ष एक करुण-चीत्कार से गूँज उठा| अभी-अभी तो महाभारत युद्ध समाप्त हुआ है और विजय की इस वेला में यह करुण-क्रन्दन? सभी पाण्डवपक्ष के वीर पांचली के कक्ष से आती चीत्कार की ओर दौड़े पड़े|
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अत्यन्त हृदयविदारक दृश्य! द्रौपदी के पाँचों पुत्रों के कटे सिर, चारो ओर रक्त-ही-रक्त! ‘द्रौपदी!’ धर्मराज इससे अधिक कुछ न बोल सके| जैसे इन तीन अक्षरों में ही उनकी समग्र वेदना, आश्चर्य और प्रश्न एक साथ साकार हो उठे हों|
गाण्डीवधारी की भुजाएँ फड़क उठीं| वे क्रोधावश में चीख उठे-‘उस दुष्ट अश्वत्थामा के अतिरिक्त इस दुष्कर्म को करने हेतु बचा ही कौन है? अपने आसुओं को पोंछ लो देवि! मैं प्रण करता हूँ कि अभी उस दुष्ट को तुम्हारे चरणों में लाकर पटक दूँगा और उस पर पैर रखकर उसके रक्त से तुम स्नान करना|’
फिर तो अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण की सलाह से उन्हें सारथि बनाकर और कवच धारणकर, गाण्डीव धनुष को लेकर अपने रथ पर सवार हो अश्वत्थामा के पीछे दौड़ पड़े| निरपराध पाण्डव-पुत्रों के वध से श्रीविहीन एवं भयातुर अश्वत्थामा अधिक समय तक अर्जुन के चंगुल से बच नहीं पाये|
‘मधुसुदन! इस दुष्ट के साथ क्या व्यवहार करना चाहिये?’ अर्जुन अभी अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाये थे कि भगवान् श्रीकृष्ण ने कुपित होकर कहा-‘इस ब्राह्मणाधमकावध ही उचित है| यही तुम्हारी प्रतिज्ञा भी है, इसमें सम्मतिकी क्या आवश्यकता?’
अपने मृत पुत्रों के शोक में संतप्त द्रौपदी ने गुरुपुत्र अश्वत्थामा को ज्यों ही कक्ष में रस्सियों से बँधे लाते देखा त्यों ही वह उठकर खड़ी हो गयी और अर्जुन के चरणों में गिरकर बोली-‘प्राणनाथ! इसे क्षमा-दान दीजिये|’
‘बैठ द्रौपदी! इस दुष्ट के वक्षपर-मैं तुझे रक्त से स्नान कराता हूँ|’ अर्जुन ने कहा|
द्रौपदी ने अपने रुँधे कण्ठ से विनय करना आरम्भ किया| वह अश्वत्थामा को हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए अर्जुन से बोली-‘आर्यपुत्र! आपने जिनसे श्रेष्ठ युद्ध-कौशल की शिक्षा प्राप्त की है, उन्हीं पूज्य गुरुदेव के ये पुत्र हैं| ब्राह्मण होने के कारण भी ये हम क्षत्रियों द्वारा अवध्य हैं| इनकी माता कृपी तो मात्र पुत्र-प्रेम के कारण ही अपने पति के मार्ग का अनुसरण न कर जीवित तो नहीं होंगे? आज जिस तरह मैं अपने पुत्रों के वियोग में तड़प रही हूँ, कल इनकी माता कृपी भी पुत्र-वियोग में न जाने क्या कर बैठें| यदि मैं किसी को सुख न दे सकूँ तो उनके दुःख का कारण तो न बनूँ|’
अर्जुनसहित सभी पाण्डव नारी के इस अदभुत आदर्श को साश्चर्य देख रहे थे| एक ओर बाँकेविहारी अपनी नित्य शान्त मुद्रा में खड़े थे| वे आगे बढ़कर बोले-‘क्या हुआ अर्जुन! रुक क्यों गये? उठाओ तलवार!’
अर्जुन श्रीकृष्ण के चरणों में नत हो गये और बोले-‘कन्हैया! मुझे धर्मसंकट से उबारिये|’
श्रीकृष्ण ने परीक्षा लेते हुए कहा-मैं अपनी शास्त्रसम्मत वाणी को पुनः दुहरा रहा हूँ पार्थ!-‘पतित ब्राह्मण का वध न करना और आततायी को मौत के घाट उतारना यही धर्म है|’
अर्जुन-जैसे गीता-ज्ञान-ग्रहणकर्ता के लिये भगवान् श्रीकृष्ण का यह संकेत पर्याप्त था| उन्होंने अश्वत्थामा के मस्तक पर लगी मणि निकाल ली और सिर के बाल मूँड़कर उसे छोड़ दिया| अपमानित ब्राह्मण मृतक ही होता है| अतः ब्राह्मण का बिना वध किये अश्वत्थामा को मृत्यु के समान दण्ड देकर अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की|