कलाकार की कला
एक मूर्तिकार था| उसने अपनी कला अपने बेटे को भी सिखाई| पिता-पुत्र दोनों शहर जाते और मूर्तियाँ बेचते| पिता को अपनी मूर्ति के डेढ़ रुपये मिलते, जबकि बेटे को मात्र पचास पैसे|
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शहर से लौटकर पिता अपने बेटे को उसकी त्रुटियाँ बताता और पुत्र निरंतर अपनी कला में सुधार लाने का प्रयत्न करता| एक समय ऐसा आया जब पुत्र को उसकी मूर्ति के तीन रुपये मिलने लगे| पिता को अब भी डेढ़ रुपया ही मिलता था| पिता ने फिर भी पुत्र की त्रुटियाँ निकालनी बंद नहीं की|
एक दिन झुंझालाकर पुत्र ने पिता से इसका कारण पूछा| पिता ने धैर्यपूर्वक उत्तर दिया, जब मैं तुम्हारी उम्र का था तो मुझे अपनी कला पर घमंड हो गया था| फिर मैंने निरंतर सुधार करने की बात को सोचना ही छोड़ दिया था| इसलिए मेरी प्रगति रुक गयी और तुम देख रहे हो कि अब मैं डेढ़ रुपये से अधिक की मूर्ति नहीं बना पा रहा हूँ| बेटे को महान कलाकार बनने का रहस्य समझ में आ गया|
शिक्षा- त्रुटियों का सुधार करने से मनुष्य बड़ा बनता है|