धर्म और मानवता
एक राजा बहुत धार्मिक प्रवृत्ति का था| धर्म के प्रचार के लिए उसने एक नियम बना रखा था| उसके महल के सामने उपवन में हर रोज शाम को धर्मसभाओं का आयोजन होता था|
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नागरिकों के लिए आदेश था कि वे अपना खाली समय इन सभाओं में आकर धर्म प्रवचन सुनने में लगाये और यदि समय न हो, तब भी आरती-वंदना के समय जरुर उपस्थित हों| एक दिन राजा के सिपाहियों ने राजा को सूचना दी की धर्मसभा शुरु होने से पहले ही शहर के कुछ युवक कहीं और चले जाते हैं| राजा ने सिपाहियों को उन युवकों का पता लगाने के लिए कहा| एक दिन शाम को राजा का एक सिपाही घूमता हुआ शहर के बाहर एक आश्रम के पास जा पहुँचा| आश्रम के किवाड़ खुले थे| भीतर से कई तरह की आवाजें सुनायी दे रही थीं| पता लगाने के लिए सिपाही भीतर जाकर एक कोने में छिपकर खड़ा हो गया| वहाँ कुछ युवक लाचार तथा बेसहारा वृद्ध जनों को खाना खिला रहे थे| कुछ लोग दूसरे तरह की तीमारदारी में लगे थे| सिपाही समझ गया कि वे वही युवक थे, जो धर्मसभा में न जाकर इस आश्रम में चले आते थे| वह तुरंत राजा के पास आया और सारा किस्सा सुनाया|
राजा धर्मसभा छोड़ सिपाही के साथ उस आश्रम में पहुँचा| वहाँ रह रहे उन वृद्ध जनों की दीन-हीन हालत देख राजा स्तब्ध रह गया| वह नहीं जानता था कि उसके राज्य में कई बेसहारा व लाचार वृद्ध भी हैं| राजा को ज्ञान हो गया कि खाली धर्म का प्रचार-प्रसार एवं प्रवचन सुनना-सुनाना ही धर्म-कर्म नहीं है| लाचार और कमजोर लोगों की सहायता सबसे बड़ा धर्म है| वह जल्दी से महल में वापस लौटा और अपने सिपाहियों को कहा कि शीघ्र ही उस आश्रम में सहायता सामग्री पहुँचायी जाये| उस दिन से राजा के यहाँ धर्मसभा बंद हो गयी और उसकी जगह भूखों के लिये लंगर और बीमारों के लिए अस्पताल चलने लगे|
शिक्षा- धर्म से मनुष्यता महान् है अतः मानवता को प्रमुखता देनी चाहिए|