अध्याय 62
1 [युधिस्ठिर]
शिवान सुखान महॊदर्कान अहिंस्राँल लॊकसंमतान
बरूहि धर्मान सुखॊपायान मद्विधानां सुखावहान
1 [युधिस्ठिर]
शिवान सुखान महॊदर्कान अहिंस्राँल लॊकसंमतान
बरूहि धर्मान सुखॊपायान मद्विधानां सुखावहान
“Yudhishthira said, ‘What is that which is called Undeteriorating and byattaining to which no one has to come back?
यह व्रत कार्तिक लगते ही अष्टमी को किया जाता है| जिस वार की दीपावली होती है अहोई आठें भी उसी वार की पड़ती है| इस व्रत को वे स्त्रियाँ ही करती हैं जिनके सन्तान होती हैं|
उसी समय क्रोध में भरे हुए विश्वामित्र वंहा आ पहुहें और बोले, “क्या बात है हरिश्चंद्र! क्या तुम मेरी दक्षिणा देना नहीं चाहते?”
सर्दियों के दिन थे | कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी | इस सर्दी में किसी को भी घर से बाहर निकलना अच्छा नहीं लगता था | एक दिन एक व्यापारी को किसी काम से शहर जाना पड़ा | वह अपने घोड़े पर सवार होकर चल दिया | सर्दी के मारे घोड़ा भी बहुत धीमी चाल चल रहा था |
1 [म]
नैव राज्ञा दरः कार्यॊ जातु कस्यां चिद आपदि
अथ चेद अपि दीर्णः सयान नैव वर्तेत दीर्णवत
“Janamejaya said, ‘O sinless one, thou hast narrated to me from thebeginning all about the birth of Dhritarashtra’s hundred sons owing tothe boon granted by the Rishi. But thou hast not told me as yet anyparticulars about the birth of the daughter.
Janamejaya said, “It behoveth thee to narrate to me in full the greatnessof the Brahmanas even as the mighty ascetic Markandeya had expounded itto the sons of Pandu.”
चिद्रूपिणि महामाये दिव्यतेजः समन्विते ।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये तेजोवृद्धि कुरुव मे ।।