HomePosts Tagged "शिक्षाप्रद कथाएँ" (Page 60)

नदी की अनेक धाराएं साथ-साथ बहती चली आ रही थीं। उन्हीं में से एक धारा अपने गतिशील जीवन से ऊबकर आगे न जाकर आम के वृक्षों की छाया तले विश्राम करना चाहती थी। तब एक अन्य धारा ने समझाया कि गतिशीलता में ही हमारी पवित्रता है।

बात उस समय की है जब राज्य की व्यवस्था के लिये शत्रुध्न को मथुरा में और लव-कुश आदि राजकुमारों को भिन्न-भिन्न स्थानों में भगवान् श्रीराम ने नियुक्त कर रखा था|

नगर के बाहर बने शिव मंदिर में ताम्रचूड़ नामक एक सन्यासी रहता था, जो उस नगर में भिक्षा माँगकर बड़े सुख से अपना जीवन व्यतीत कर रहा था| वह अपने खाने-पीने से बचे अन्न-धान्य को एक भिक्षा पात्र में रख देता और फिर उस पात्र को रात्रि में खूंटी पर लटकाकर निश्चिंतता से सो जाया करता था| प्रातकाल ताम्रचूड़ स्नान-पूजादि से निवृत होकर उस अन्न-धान्य आदि को मंदिर के बाहर बैठनेवाले भिखारियों में बाँट देता था|

गंगा के किनारे खड़ी नाव में सभी यात्री बैठ चुके थे। बगल में ही युवक खड़ा था। नाविक ने उसे बुलाया, पर चूंकि उसके पास नाविक को उतराई देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वह नाव में नहीं बैठा और तैरकर घर पहुंचा।

पृथु नामक एक कर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे| वे प्रतिदिन संध्या, होम, तर्पण, जप-यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों में लगे रहते थे| उन्होंने मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया था|