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किसी नगर में एक आदमी रहता था| वह पढ़ा-लिखा और चतुर था| एक बार उसमें धन कमाने की लालसा पैदा हुई| उसके लिए उसने प्रयत्न आरंभ किया| देखते-देखते उसके पास लाखों की संपदा हो गई, पर उसके पास ज्यों-ज्यों पैसा आता गया, उसका लोभ बढ़ता गया| साथ ही धन का ढेर भी ऊंचा होता गया|

रसायनशास्त्री नागार्जुन एक राज्य के राज वैद्य थे। एक दिन उन्होंने राजा से कहा, ‘मुझे एक सहायक की जरूरत है।’ राजा ने उनके पास दो कुशल युवकों को भेजा और कहा कि उनमें से जो ज्यादा योग्य लगे उसे रख लें। नागार्जुन ने दोनों की कई तरह से परीक्षा ली पर दोनों की योग्यता एक जैसी थी। नागार्जुन दुविधा में पड़ गए कि आखिर किसे रखें।

पांडव जलते हुए लाक्षागृह से बचकर, सुरंग के रास्ते, अधंकार में चलते रहे और गंगा नदी के तट पर जा पहुँचे| वहां विदुर द्वारा भेजा हुआ नाविक उनकी प्रतीक्षा कर रहा था| नदी पार करने के बाद उन सबको दूर तक पैदल चलना पड़ा| कुंती जब थक जातीं तब विशालकाय भीम उन्हें कन्धों पर उठा लेते| भीम इतने शक्तिशाली थे कि कई बार वे चारों भाइयों और कुंती को एक साथ उठा लेते थे|

त्रेतायुग में कौशिक नाम के एक ब्राहमण थे| भगवान् में उनका अत्यधिक अनुराग था| खाते-पीते, सोते-जागते प्रतिक्षण उनका मन भगवान् में लगा रहता था| उनकी साधना का मार्ग था संगीत| वे भगवान् के गुणों और चरित्रों को निरंतर गाया करते थे| ये सभी गान प्रेमार्द्र-ह्रदय से उपजे होते थे|

कौशिक के स्वागत-समारोह में नारद जी को जो लक्ष्मी-नारायण के समीप से दूर हटाया गया था और उनकी जगह तुम्बुरु को बैठाया गया था, वह नारद जी को बहुत ही खला| वे समझ गए कि मेरा इतना बड़ा अध्ययन, इतनी बड़ी तपस्या आदि सब कुछ संगीत के सामने तुच्छ- सा हो गया| इस पर वे भी संगीत के ज्ञान के लिए उत्सुक हो गए और घोर तप करने लगे|

किसी नगर में एक आदमी रहता था| वह पढ़ा-लिखा और चतुर था| एक बार उसमें धन कमाने की लालसा पैदा हुई| उसके लिए उसने प्रयत्न आरंभ किया| देखते-देखते उसके पास लाखों की संपदा हो गई, पर उसके पास ज्यों-ज्यों पैसा आता गया, उसका लोभ बढ़ता गया| साथ ही धन का ढेर भी ऊंचा होता गया|

संत तुकोजी महाराज अपने प्रिय शिष्यों के साथ भजन-कीर्तन में मग्न रहा करते थे। सभी के प्रति सद्भावना और शुभ चिंतन ही उनका धर्म था। एक बार उनके प्रति आस्था रखने वाले एक व्यक्ति ने अपनी दुकान का नाम गुरुदेव सैलून रख दिया। संतजी के एक अन्य शिष्य रामचंद्र ने जब यह सुना तो वह क्रोधित हो उठा। संतजी के सामने ही वह बड़बड़ाते हुए बोला- यह तो आपका अपमान है।

जिन दिनों पांडव, कौरव राजकुमारों के साथ हस्तिनापुर में रहते थे, दुर्योधन को उनका वहां रहना तनिक न सुहाता था| पांडवों को देखकर उसका रोम-रोम जल उठता परंतु वह कुछ कर नहीं पाता|