HomePosts Tagged "शिक्षाप्रद कथाएँ" (Page 80)

महर्षि मुद्गल प्राचीन वैदिक ऋषि थे| वे ऋग्वेद के दशम मंडल के १०२ वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि थे| गौतम पत्नी अहल्या और शतानंद इन्हीं के वंश में उत्पन्न हुए थे| महर्षि मुद्गल ऋग्वेद कि मुख्य शाखा- शाकल्यसंहिता के द्रष्टा महर्षि शाकल्य के पाँच शिष्यों में से सर्वप्रथम थे| इनकी पत्नी इंद्रसेना या मुद्गलानी कही गई है|

एक अत्यंत निर्दयी और क्रूर राजा था। दूसरों को पीड़ा देने में उसे आनंद आता था। उसका आदेश था कि उसके राज्य में एक अथवा दो आदमियों को फांसी लगनी ही चाहिए। उसके इस व्यवहार से प्रजा बहुत दुखी हो गई थी।

हस्तिनापुर से लौटते समय कृष्ण की भेंट कर्ण से हुई| उन्होंने कर्ण से कहा, “कर्ण, तुम्हे संभवतः यह विदित नहीं है कि तुम कुंती के पुत्र और पांडवों के भाई हो| अतः तुम्हें यह भी सोचना होगा कि अपने भाइयों से युद्ध करना कहां उचित है| कहो कर्ण! यह जानने के बाद क्या युद्ध अनावश्यक नहीं हो जाता?”

किसी गांव के पास एक सांप रहता था| वह बड़ा ही तेज था| जो भी उधर से निकलता, वह उस पर दौड़ पड़ता और उसकी जान ले लेता| सारे गांव के लोग उससे तंग आ गए| वे उसे रात-दिन कोसते| आखिरकार उन्होंने उस मार्ग से निकलना ही छोड़ दिया| गांव का वह हिस्सा उजाड़-सा हो गया|

एक बार भगवान् श्रीराम ने अयोध्या की राजसभा में उपस्थित वशिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप आदि श्रेष्ठ ऋषियों से प्रश्न किया कि ‘इस विश्व में सर्वश्रेष्ठ एवं मोक्षदायक पवित्र तीर्थ कौन सा है, जिसका दर्शन करने से मनुष्य अपने पाप-राशि का क्षय और धर्म प्राप्त करता है|’

एक गांव में लक्ष्मीनारायण का मंदिर था। उसके दूसरी ओर ही शिवालय था। इन मंदिरों के बाहर एक वृद्धा फूल बेचती थी। एक दिन वृद्धा के पास फूल कम पड़ गए। तभी वहां एक शिवभक्त आया और फूल मांगने लगा।

जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद बादशाह औरंगजेब जोधपुर को हड़पना चाहता था लेकिन जसवंत सिंह के मंत्री दुर्गादास राठौर ने औरंगजेब की कोई भी चाल कामयाब नहीं होने दी। जसवंत सिंह के पुत्र राजकुमार अजीत सिंह को जोधपुर की गद्दी पर बिठाने के लिए दुर्गादास ने मुगल सेना से डटकर युद्ध किया। दुर्गादास ने भी कभी हार नहीं मानी।

वनवास के तेरह वर्ष पूर्ण हो चुके थे और पांडव अपना राज्य वापस चाहते थे| युधिष्ठिर ने यह संदेश देकर अपने दूत को हस्तिनापुर भेजा| पांडव शांति की कामना करते थे, फिर भी उन्होंने संभावी युद्ध के लिए तैयारियाँ आरंभ कर दी थीं|

प्राचीन काल में माहिष्मति नाम की एक श्रेष्ठ नगरी थी, जो नृपश्रेष्ठ वरेण्य की राजधानी थी| महाराज वरेण्य परम धर्म परायण थे| ऐसा लगता था कि मानो मूर्तिमान धर्म ने उनके रुप में अवतार ग्रहण किया हो| वे बड़ी तत्परता से प्रजा का पालन करते थे| उन्हीं की भांति उनकी पत्नी महारानी पुष्पिका भी परम गुणवती, पतिव्रता एवं सदाचारिणी थी|