विरह-वेदना
शेख़ शिबली एक दिन अपने शिष्यों के साथ बैठे थे| सर्दी का मौसम था, आग जल रही थी| अचानक उनका ध्यान चूल्हे में जलती हुई लकड़ी के एक टुकड़े पर गया जो धीरे-धीरे सुलग रहा था| लकड़ी कुछ गीली थी, इसलिए आग की तपिश से पानी की कुछ बूँदें इकट्ठी होकर उसके एक कोने से टपक रहीं थीं| कुछ देर सोचने के बाद शेख़ शिबली ने अपने शिष्यों से कहा:
“तुम सब दावा करते हो कि तुम्हारे अन्दर परमात्मा के लिए गहरा प्रेम और भक्ति है, पर क्या कभी सचमुच विरह की आग में जले हो? मुझे तुम्हारी आँखों में न कोई तड़प, न ही विरह की वेदना के आँसू दिखायी देते हैं| इस लकड़ी के टुकड़े को देखो, यह किस तरह जल रहा है और किस तरह आँसू बहा रहा है| इस छोटे, मामूली टुकड़े से कुछ सबक़ सीखो|”
प्रभात-वेला की इबादत और रात भर मालिक के वियोग में विलाप मालिक की प्राप्ति के ख़ज़ाने की कुंजी है| (ख्वाजा हाफ़िज़)