सच्चा त्यागी कौन?

ऋषि वेदव्यास का पुत्र शुकदेव जिसको गर्भ में ही ज्ञान था, राजा जनक को गुरु धारण करने के लिए उसके दरबार में तेरह बार गया| शुकदेव के पिता ने उसे यह बताया था कि इस समय राजा जनक ही पूर्ण गुरु हैं, इसलिए गुरु धारण करने के लिए उसके पास जाओ|
शुकदेव घर से गुरु धारण करने को निकलता, पर वैसे ही वापस आ जाता| वह अपने जैसे किसी त्यागी को अपना गुरु धारण करना चाहता था| उसका सम्बन्ध उच्च कुल के ब्राह्मण और ऋषि परिवार से था जब कि राजा जनक एक क्षत्रिय राजा था और ऐश्वर्य का जीवन बिता रहा था| वह वैभव, धन-दौलत और राज्य शक्ति से घिरा हुआ था|
जब नारद-मुनि ने एक बूढ़े आदमी के भेष में आकर उससे यह भेद खोला कि चौदह कलाओं में से बारह कलायें वह पहले ही खो चुका है तो उसने न चाहते हुए भी अपने पिता के आदेश को मानने का निश्चय किया|
वह चल तो पड़ा लेकिन मन में अभी भी अहंकार था कि मैं वेदव्यास कर पुत्र हूँ, शायद राजा जनक मुझे लेने आये| राजा के महल पर पहुँच कर इत्तिला करवायी कि वेदव्यास का पुत्र शुकदेव आया है| राजा के हुक्म से जहाँ इन्तज़ार करने के लिए कहा गया वह जगह अस्तबल के पास थी| सारा कूड़ा-करकट, घोड़ों की लीद वगैरा वहीं फेंकते थे| खड़े-खड़े चार दिन बीत गये और वह लीद में दब गया| राजा जनक ने पूछा कि वेदव्यास का पुत्र आया था, वह कहाँ है? दरबान ने अर्ज़ की, “हुज़ूर! वह बाहर इन्तज़ार कर रहा है|” राजा ने हुक्म दिया कि उसको नहलाओ, धुलाओ और पेश करो| राजा जनक ने यह देखकर कि इसको त्याग का अहंकार है और मुझे भोगी समझता है, एक कौतुक दिखाया| जब शुकदेव नाहा-धौकर सामने आया, तब क्या देखता है कि राजा बैठा है, उसके एक पैर को तो औरतें अपने कोमल हाथों से दबा रही हैं, दूसरी ओर एक आग का चूल्हा है और दूसरा पैर उसमें जल रहा है| यह देखकर सोचता है कि ओहो! मुझसे बड़ी भूल हुई है कि मैं इसको भोगी राजा कहता रहा, यह तो कोई बड़ा महात्मा है| उसका विश्वास और पक्का करने के लिए राजा ने दूसरा कौतुक रचा|
एक नौकर ने आकर अर्ज़ की, “हुज़ूर! शहर को आग लग गयी है|” जनक बोले, “हरि इच्छा!” फिर ख़बर मिली शहर की छावनी जल गयी है| फिर बोले, “हरि इच्छा!” फिर ख़बर मिली कि शहर की तमाम कचहरियाँ जल गयी हैं| कहा, “हरि इच्छा!” फिर ख़बर मिली कि आपके महलों को आग लग गयी है| बोले, “हरि इच्छा!” शुकदेव मन में कहता है, बड़ा बेवकूफ़ है| इन्तज़ाम नहीं करता| इतने में आग राजा के पास आ गयी| यह देखकर शुकदेव ने अपना झोली-झण्डासँभाला और भागने की तैयारी करने लगा| राजा जनक ने बाँह पकड़ ली और कहा, “देख! मेरा सबकुछ जलकर राख हो गया, मैंने परवाह नहीं की, लेकिन तू झोली-डण्डा सँभालने लग गया है, जो आठ आने का न होगा, तो एक रुपये का होगा! तुझे अहंकार है ऋषि होने का? अब बता कि त्यागी कौन है?” ऋषि चुप-चाप सुनता रहा| आख़िर समझ गया कि मैं त्यागी नहीं, सच्चा त्यागी राजा जनक है| अर्ज़ की कि मुझे नाम दो| राजा ने कहा कि तू नाक के क़ाबिल नहीं है|
राजा जनक को ज्ञान था कि गहरे अनुभव के लिए शुकदेव को और तैयार करने की आवश्यकता है| इसलिए राजा ने अपने अधिकारीयों को आदेश दिया कि सारे शहर को त्यौहार की तरह सजाया जाये| शुकदेव के स्वागत और उसके मनोरंजन के लिए हर तरह की आनन्द-भरपूर क्रीड़ा और नाच-गाने का प्रबन्ध किया जाये|
सारी तैयारी हो जाने के बाद राजा जनक ने शुकदेव को बुलाया और उसके स्वागत और मनोरंजन के लिए शहर में जो कुछ भी किया गया था, उसे देखने के लिए उसे कहा| जब वह जाने ही वाला था तो राजा ने उसे कहा, “शुकदेव, तुम आज जहाँ-कहीं भी जाओ, अपने हाथ में दूध से पूरा भरा हुआ एक प्याला उठाते चलना| यह मेरी इच्छा है|”
शुकदेव के साथ भेजे गये सिपाहियों के मुखिया को राजा जनक ने हुक्म दिया, “शुकदेव को शहर के हर कोने में ले जाओ| उसे हर वस्तु दिखाओ, कुछ बचे नहीं| अपने मेहमान का हर सम्भव स्वागत करना है| परन्तु यदि शुकदेव के हाथ में पकड़े प्याले से दूध की एक बूँद भी गिर जाये, तो मेरा आदेश है कि उसी समय उसका सिर काट दिया जाये|”
अति सुन्दर पोशाक पहने हुए रक्षकों के साथ शुकदेव शहर के हर कोने में घूमा और देर रात को राजा जनक के दरबार में वापस पहुँचा|
राजा जनक ने कहा, “मुझे ख़ुशी है कि तूने स्वागत में की गयी सारी कार्यवाही देखी है| क्या तुम्हें ख़ूब आनन्द मिला? कहीं तुम्हें कुछ कमी तो नहीं लगी?” इस पर शुकदेव ने उत्तर दिया, “हे राजन! सच तो यह है कि मैंने कुछ भी नहीं देखा क्योंकि हर पल मेरा ध्यान प्याले पर ही था कि कहीं ऐसा न हो कि दूध की बूँद गिर जाये और साथ ही मेरी जान भी चली जाये|”
राजा जनक ने मुस्कराते हुए कहा, “शुकदेव, इस सारे ऐश्वर्य और धन-दौलत के बीच मैं भी ऐसे ही रहता हूँ| मैं भी कुछ नहीं देख पाता क्योंकि हर पल मेरा ध्यान प्रभु में केन्द्रित रहता है ताकि मैं अपना जीवन व्यर्थ न गँवा दूँ|”
राजा कहता गया, “विचार करो, प्याला मौत है, इसमें भरा दूध तुम्हारा मन है और त्यौहार जैसी क्रीड़ा, दुनिया का ऐश्वर्य और धन-दौलत हैं| मैं इस दुनिया में बहुत सावधानीपूर्वक रहता हूँ ताकि मन रूपी दूध गिरने न पाये| मेरा हर पल प्रभु की याद में गुज़रता है क्योंकि प्रभु-भक्ति के बिना बीता हर पल मेरे लिए मौत के समान है|”
राजा जनक ने देखा कि शुकदेव का मन निर्मल हो गया है| उसने प्रसन्नता-पूर्वक उसे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया और नाम का भेद दे दिया|
अभिमान और अविश्वास, गुरु धारण करने और सच्चा मार्ग अपनाने में सबसे बड़ी रुकावटें हैं| राजा जनक में विश्वास दृढ़ करने, अपनी शंकाएँ और अहंकार दूर करने के लिए शुकदेव को कड़ी कठिनाइयों में से गुज़रना पड़ा|