सूत्रपात (अलिफ लैला) – शिक्षाप्रद कथा
बहुत समय पहले फारस में एक बादशाह था| वह बहुत ही न्यायप्रिय एवं प्रजापालक था| इसी कारण उसकी प्रजा उसे बहुत चाहती थी| राजा के दो पुत्र थे – शहरयार एवं शाहजमां| शहरयार बड़ा था और शाहजमां छोटा| राजा के ये दोनों पुत्र भी अपने पिता की भांति धीर, वीर एवं शीलवान थे|
जब राजा का देहांत हो गया तो बड़ा होने के नाते शहरयार फारस की राजगद्दी पर बैठा| अपने छोटे भाई शाहजमां को उसने तातार देश की सत्ता सौंप दी और शाही खजाने से पर्याप्त मात्रा धन-दौलत, हाथी-घोड़े, फौज एवं अन्य आवश्यक वस्तुएं देकर समरकंद के लिए रवाना कर दिया| समरकंद तातार देश की राजधानी थी| इस प्रकार दोनों भाई अपने-अपने हिस्से के राज्यों का कुशलतापूर्वक संचालन करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे| धीरे-धीरे दस वर्ष व्यतीत हो गए|
इस बीच बड़े भाई शहरयार की इच्छा अपने छोटे भाई शाहजमां से मिलने को बालवती हो उठी| तब उसने अपने वज़ीर को समरकंद भेजकर शाहजमां को ला ने के लिए कहा| स्वामी का आदेश पाकर वज़ीर समरकंद पहुंचा तो शाहजमां ने उसका खूब सत्कार किया और अपने भाई की कुशल-क्षेम पूछी| सारी खैर-खैरियत बताकर वज़ीर ने अपने स्वामी की इच्छा बतलाई तो शाहजमां उसके साथ चलने को तैयार हो गया| उसने वज़ीर से कहा कि वह स्वयं भी अपने बड़े भाई से मिलने को बेचैन था| वज़ीर को शाही मेहमानखाने में ठहराकर शाहजमां जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गया| इस बीच उसने बड़े भाई के लिए अनेक प्रकार के कीमती तोहफे खरीदे| फिर दसवें दिन अपने विश्वस्त मंत्रियों को शासन की बागडोर सौंपकर और उन्हें आवश्यक निर्देश देकर वह वजीर के साथ फारस के लिए चल पड़ा|
शाहजमां का काफिला अभी समरकंद से कुछ ही दूरी पर पहुंचा था कि हिमापात शुरू हो गया| आगे बढ़ने में विवशता महसूस करते हुए उसने वहां खेमे लगवा दिए और हिमापात रुकने की प्रतीक्षा करने लगा| आधी रात के करीब जब हिमपात रुका तो एक विचार उसके मस्तिष्क में कौंध उठा, ‘न जाने कितने दिन भाई के पास ठहरना पड़े| क्यों न एक बार महल में जाकर अपनी प्रिय बेगम से मिल आऊं|’
यह सोचकर वह घोड़े पर सवार होकर आधी रात को अपने महल की ओर चल पड़ा| वह उस गुप्त दरवाजे से महल में प्रविष्ट हुआ, जिसकी जानकारी किसी और को न थी| शाहजमां यह सोचकर महल में लौटा था कि उसे अचानक सामने देखकर बेगम आश्चर्यचकित रह जाएगी| वह उससे लिपटकर भरपूर प्यार करेगी और उसके दामन में खुशियां भर देगी, किंतु जैसे ही वह अपने कक्ष में घुसा, अपनी प्रिय बेगम को एक कुरूप और गंदे गुलाम के साथ सह-शयन करते देख सन्न रह गया| उसकी बेगम और महल का वह नौकर दोनों एक-दूसरे से लिपटे हुए दीन-दुनिया से बेखबर उसके ही पलंग पर सोए पड़े थे| शाहजमां को बहुत गुस्सा आया| उसकी सबसे प्रिय बेगम, जिस पर वह जान छिड़कता था – उससे यूं बेवफाई करेगी, इसको तो उसने कल्पना तक नहीं की थी| अभी तो वह समरकंद की सीमा से बाहर भी नहीं निकला था और बेगम ने अपना असली चेहरा दिखाना शुरू कर दिया|
बस फिर क्या था, उसने तलवार खींच ली और दो ही वारों में दोनों के सिर कलम कर दिए| दोनों की लाशें शाहजमां ने एक खिड़की के द्वारा महल के नीचे एक खाई में फेंक दीं और जिस राह महल में दाखिल हुआ था, उसी राह से वापस अपने खेमे में लौट पड़ा| अगले दीं वह बेगम से अपने काफिले के साथ फारस के लिए चल पड़ा|
शहरयार के राजमहल में पहुंचकर दोनों भाई एक-दूसरे से बांहें पसारकर मिले| ढेरों बातें हुईं| देर रात तक दोनों एक-दूसरे से बतियाते रहे| इस बीच शहरयार ने स्पष्ट महसूस किया कि शाहजमां उससे मिलकर उतना खुश नहीं था, जितना कि उसे होना चाहिए था| एक अनजानी-सी उदासी चेहरे पर छाई हुई थी| वह बातें तो कर रहा था, किंतु मन कहीं और जगह भटक रहा था|
शहरयार ने अपने भाई को खुश करने के लिए अनेक उपाय किए| कुशल गायकों का गायन पेश कराया, राज्य की सबसे ख्याति प्राप्त नर्तकियों के नृत्य पेश कराए, उत्तम वस्त्र, उत्तम भोजन सभी कुछ शाहजमां को प्रदान किए, किंतु उसकी उदासी दूर न हुई| तंग आकर शहरयार ने पूछ ही लिया, “शाहजमां, मेरे भाई! मैं देख रहा हूं कि तुम जब से यहां आए हो, खुश नहीं हो| ऐसा कौन-सा गम है, जो तुम्हें अंदर-ही-अंदर खाए जा रहा है| मुझे बता दो मेरे भाई! मैं तुम्हारी उदासी को दूर करने की भरपूर कोशिश करूंगा|”
“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है, भाईजान! मैं तो बहुत खुश हूं| भला अपने सगे भाई से दस साल बाद मिलने पर कौन खुश न होगा| आपको ही कोई गलतफहमी हुई है| आप मेरे बड़े भाई हैं न, इसलिए मेरे चेहरे पर जरा-सी उदासी देखकर चिंतित हो रहे हैं|” शाहजमां ने बात बनाकर अपने भाई को संतुष्ट कर देना चाहा|
शहरयार के बार-बार पूछने पर भी शाहजमां ने कुछ न बताया तो अगले दीं उसने भाई को जंगल में ले जाकर आखेट करने के लिए कहा| उसने सोचा कि शायद इसी प्रकार शाहजमां की उदासी दूर हो जाए – लेकिन शाहजमां ने उसके इस आग्रह को भी विनयपूर्वक टाल दिया और तबीयत ठीक न होने का बहाना बनाकर महल में ही रहने का आग्रह किया| विवश होकर शहरयार अपने मनसबदारों के साथ अकेला ही शिकार करने चला गया| शहरयार के जाने के बाद शाहजमां महल की एक खिड़की के पास आकर बैठ गया और नीचे महल के अंदर दूर-दूर तक फैले विशाल उद्यान को देखने लगा| उसके विचारों से अपनी बेगम की बेवफाई की बात निकल नहीं पा रही थी| वह बहुत देर तक यूं ही विचारों में तल्लीन खिड़की से टेक लगाए शून्य में देखता रहा| शाम हुई तो शाहजमां ने देखा कि राजमहल का एक चोर दरवाजा खुला और उसमें से शहरयार की बेगम बीस अन्य स्त्रियों के साथ निकली| वे सब उत्तम वस्त्रों और अलंकारों से शोभित थीं और इस विश्वास के साथ कि सब लोग शिकार पर चले गए हैं, बाग में आ गईं| शाहजमां खिड़की में छिपकर बैठ गया और देखने लगा कि वे क्या करती हैं?
दासियों ने उन लबादों को उतार डाला, जो वे महल से पहनकर निकली थीं| अब उनकी सूरतें स्पष्ट दिखाई देने लगीं| शाहजमां को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिन बीसों को वह स्त्री समझ रहा था, उनमें से दस हब्शी मर्द थे| उन दसों ने अपनी-अपनी पसंद की दासी का हाथ पकड़ लिया| सिर्फ बेगम बगैर मर्द के रह गई, फिर बेगम ने आवाज लगा दी,
“मसऊद…मसऊद!”
उसके आवाज लगाते ही एक हृष्ट-पुष्ट हब्शी नौजवान एक वृक्ष से उतरकर बेगम की ओर दौड़ा और उसका हाथ पकड़ लिया| आधी रात तक वे सब उस उद्यान में विहार करते रहे, फिर बाग के हौज में नहाकर बेगम और उसके साथ आए बीस मर्द-औरतों ने अपने कपड़े पहने और जिस चोर दरवाजे से आए थे, उसी से महल में चले गए|
यह दृश्य देखकर शाहजमां को घोर आश्चर्य हुआ| उसने सोचा कि मैं तो दुखी हूं ही, मेरा बड़ा भाई मुझसे भी अधिक दुखी है| यद्यपि वह शक्तिशाली है, तथापि इस दुष्कर्म को रोकने में असमर्थ है – फिर मैं इतना शोक क्यों करूं? जब मुझे मालूम हो गया है कि यह नीच कर्म संसार में अकसर ही होता है तो मैं व्यर्थ ही स्वयं को शोक सागर में डुबोए दे रहा हूं|
यह सोचकर उसने सारी चिंता छोड़ दी और नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन मंगाकर खाने लगा और नृत्य एवं संगीत का आनंद लेने लगा| जब शहरयार शिकार से लौटा तो शाहजमां ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उसका स्वागत किया| शहरयार ने सोचा था कि वापसी पर भी वह शाहजमां को दुख और शोक में डूबा हुआ पाएगा – लेकिन इसके विपरीत उसे प्रसन्न और संतुष्ट देखकर उसने अपने भाई से पूछा, “ऐ भाई! खुदा का बहुत-बहुत शुक्र कि मैंने तुम्हें थोड़ी ही अवधि में प्रसन्न और व्याधिमुक्त देखा| अब मैं तुम्हें सौगंध देकर एक बात पूछता हूं, तुम वह बात अवश्य बताना|”
शाहजमां ने प्रसन्न मुद्रा में कहा , “जो भी बात आप पूछेंगे, मैं अवश्य बताऊंगा|”
शहरयार ने कहा, “जब तुम अपनी राजधानी से यहां आए थे, तो मैंने तुम्हें शोक सागर में डूबा देखा था| मैंने तुम्हारा चित्त प्रसन्न करने के लिए अनेक उपाय किए| तरह-तरह के खेल-तमाशे करवाए, नर्तकियों से नृत्य एवं गायन करवाया – किंतु तुम्हारी हालत जैसी की तैसी रही| मैंने बहुत सोचा कि इस दुख का क्या कारण हो सकता है, किंतु कारण समझ में नहीं आया और मेरे बार-बार आग्रह करने पर भी तुमने मुझे कुछ नहीं बताया| मैं तो सिर्फ यही समझ रहा था कि शायद तुम्हें अपनी बीवी के विछोह का गम है या फिर अपने राज्य की चिंता है, किंतु अब ऐसी क्या बात हुई है कि तुम्हारी सारी चिताएं छू-मंतर हो गईं?”
शाहजमां यह सुनकर मौन रहा, किंतु जब शहरयार ने बार-बार यही प्रश्न किया तो वह बोला, “ऐ भाई! आप मुझसे बड़े हैं, मेरे पूज्य हैं| मैं इस प्रश्न का उत्तर न दे पाऊंगा – क्योंकि यह बड़ी निर्लज्ज की बात है|”
इस पर शहरयार बोला, “कैसी भी निर्लज्जता की बात हो, तुम मुझे बताओ| तुम जब तक यह बात मुझे नहीं बताओगे, मुझे चैन नहीं पड़ेगा|”
विवश होकर शाहजमां ने अपनी बेगम के कारनामों का सविस्तार वर्णन कर दिया और यह बता दिया कि उसने उसे मौत के घाट उतार दिया है – इसी कारण वह उदास रहता था|
सुनकर शहरयार ने कहा, “भाई! यह तो तुमने बहुत आश्चर्य की एवं बड़ी असंभव-सी बात बताई| यह तुमने बहुत ही अच्छा किया कि उस व्यभिचारिणी को उसके प्रेमी सहित मार डाला| इस मामले में मैं तुम्हें अन्यायी नहीं कह सकता| तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो मुझे सिर्फ उस स्त्री को ही मारने से संतोष नहीं मिलता, उसके साथ मैं हजारों स्त्रियों को मार डालता| अब बताओ कि मेरे बाहर जाने के बाद तुम्हारा यह शोक किस प्रकार दूर हुआ|”
शाहजमां ने कहा, “मुझे यह बात कहते हुए डर लगता है, भैया, कहीं ऐसा न हो कि यह सुनकर आपको मुझसे भी ज्यादा दुख पहुंचे|”
शहरयार ने कहा, “भाई मेरे! तुमने यह कहकर मेरी उत्कंठा और बढ़ा दी है| मुझे अब इस बात को सुने बगैर चैन नहीं आएगा, इसलिए यह बात जरूर बताओ|”
विवश होकर शाहजमां ने बेगम, मसऊद और दसों दासियों का सारा हाल कह सुनाया| फिर थोड़ा रुककर बोला, “यह घटना मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखी है भैया| अब मैं समझ गया हूं कि सारी स्त्रियों के स्वभाव में दुष्टता और पाप होता है, इसलिए आदमी को चाहिए कि वह इन पर भरोसा न करे| मैं यह कांड देखकर अपना सारा दुख भूल गया हूं और प्रसन्न रहने लगा हूं|”
यह सब सुनकर भी शहरयार को अपने भाई की बात पर विश्वास न हुआ| वह क्रुद्ध स्वर में बोला, “क्या हमारे वंश की सभी स्त्रियां व्यभिचारिणी हैं? मुझे तुम्हारे कहने पर तब तक विश्वास नहीं होगा, जब तक कि मैं स्वयं अपनी आंखों से न देख लूं| संभव है, तुम्हें भ्रम हुआ हो|”
शाहजमां ने कहा, “भाई जान! आप खुद देखना चाहते हैं तो ऐसा करिए कि दोबारा शिकार पर जाने का ऐलान कर दीजिए| हम और आप दोनों फौज के साथ शहर से कूच करके बाहर चलें| दिन भर खेमो में रहें और रात को चुपचाप इसी महल में आ बैठें| फिर निश्चय ही वह सारा माजरा आप अपनी आंखों से देख लेंगे, जो मैंने बताया है|”
फिर वैसा ही किया गया और योजनानुसार दोनों भाई शिकार पर जाने का बहाना करके रात को चुपचाप महल में लौट आए| दोनों उसकी खिड़की के पास आ बैठे, जिससे शाहजमां ने सारा नजारा देखा था| सूर्योदय से पूर्व ही महल का चोर दरवाजा खुला और कुछ देर में बेगम उन स्त्री वेशधारी हब्शियों के साथ निकलकर उद्यान में आ पहुंची| वहां पहुंचकर उसने मसऊद को पुकारा, जो तुरंत हाजिर हो गया| बाद का सारा हाल, जो न कहने योग्य है, न सुनाने योग्य – अपनी आंखों से देखकर शहरयार अपने मन में सोचने लगा, ‘या अल्लाह ताला! यह कैसा अनर्थ है कि मुझ जैसे महान नृपति की पत्नी ऐसी व्यभिचारिणी है|’
फिर वह शाहजमां से बोला, “अच्छा यह रहेगा कि हम इस क्षणभंगुर संसार को, जिसमें एक क्षण आनंद होता है और दूसरे क्षण दुख – छोड़ दें और अपने देशों और सेनाओं का परित्याग करके अन्य देश में जीवन काटें और किसी से इस घृणित कार्य के बारे में कुछ न कहें|”
शाहजमां को यह बात पसंद नहीं आई, किंतु अपने भाई को अत्यंत दुखी देखकर उसने इनकार करना उचित न समझा और बोला, “भाई जान! मैं आपका अनुचर हूं और आपकी आज्ञा को पूर्वरूप से मानूंगा, लेकिन मेरी एक शर्त है| वह यह कि जब आप किसी व्यक्ति को अपने से अधिक ऐसे दुर्भाग्य से पीड़ित देखें तो अपने देश को लौट आएं|”
शहरयार ने कहा, “मुझे तुम्हारी यह शर्त स्वीकार है| लेकिन मेरा विचार है, हमसे ज्यादा दुखी इस संसार में और कोई नहीं है|”
शाहजमां ने कहा, “थोड़ी-सी यात्रा करने पर ही आपको इस बात का अच्छी तरह पता चल जाएगा|”
तब वे दोनों छुपकर एक सुनसान रास्ते से नगर के बाहर एक ओर को चल दिए| दिन भर चलने के बाद रात को एक पेड़ के नीचे लेटकर वे सो गए| दूसरे दिन एक मनोरंजक वाटिका में पहुंचे, जो एक नदी के तट पर बनी हुई थी| वहां एक वृक्ष के नीचे बैठकर वे सुस्ताने लगे| थोड़ी ही देर हुई थी कि अचानक एक आवाज सुनकर दोनों भयभीत हो गए और डर के मारे थर-थर कांपने लगे| कुछ ही देर बाद उन्होंने देखा कि नदी के जल में एक दरार पैदा हुई और उसमें से एक काला खंबा निकलकर इतना ऊंचा उठा गया कि उसका ऊपरी भाग बादलों में विलुप्त हो गया|
यह देखकर दोनों भयभीत होकर एक वृक्ष पर चढ़ गए और स्वयं को पत्तों के बीच छुपाकर एक मोती-सी डाल पर बैठ गए| उन्होंने देखा कि वह काला खंभा तट की ओर बढ़ने लगा और तट पर आकर वह एक महाभयानक दैत्य के रूप में परिवर्तित हो गया| अब तो वे दोनों और भी घबराए और एक ऊंची शाख पर जा बैठे| दैत्य नदी तट पर आया तो उन्होंने देखा कि उसके सिर पर एक शीशे का बना बड़ा-सा संदूक था| संदूक मजबूत था और उसमें पीतल के चार ताले लगे हुए थे| दैत्य ने नदी तट पर आकर अपने सिर से संदूक उतारा और उसी वृक्ष के नीचे रख दिया, जिस पर वे छुपे बैठे थे| फिर उसने कमर से लटकती हुई चार चाबियों से चारों ताले खोले| संदूक खुला तो उसमें से एक अति सुंदर स्त्री निकली, जो बहुत ही उत्तम वस्त्र एवं आभूषण पहने हुए थी| दैत्य ने स्त्री को प्रेममयी दृष्टि से देखा और कहा, “प्रिये! तू सुंदरता में अनुपम है| बहुत दिन हो गए, जब मैं तुझे तेरे विवाह-मंडप से उठा लाया था| इस सारे काल में तू बड़ी निष्कलंक और मेरे प्रति वफादार रही है| मुझे इस समय नींद आ रही है, इसलिए मैं यह सोना चाहता हूं|” यह कहकर महाभयानक आकृति वाला वह दैत्य उस स्त्री की जंघा पर अपना सिर रखकर सो गया| सोते समय उसकी श्वास का स्वर ऐसा लग रहा था, जैसे बादल गरज रहे हों| उस दैत्य का शरीर इतना विशाल था कि उसके पांव नदी के जल को छू रहे थे|
वह सुंदर स्त्री चुपचाप वहीं बैठी थी| संयोगवश जब उसने ऊपर की ओर देखा तो उसे पत्तियों में छुपे दोनों भाई दिखाई दे गए| उसने दोनों को नीचे उतरने का संकेत किया| उसके उद्देश्य को समझकर दोनों का भय और भी बढ़ गया| दोनों ने इशारों से विनती की कि हमें पेड़ पर ही छुपा रहने दो|
स्त्री ने उन्हें धैर्य देते हुए कहा कि भय जैसी कोई बात नहीं है, तुम नीचे उतर आओ और मेरे समीप आकर बैठो| उसने यह भी धमकी दी कि अगर नहीं आओगे तो मैं दैत्य को जगा दूंगी, फिर वह तुम दोनों को समाप्त कर देगा|
यह सुनकर वे बहुत डर गए और चुपचाप पेड़ से नीचे उतर आए| वह स्त्री मुस्कराती हुई दोनों का हाथ पकड़कर एक वृक्ष के नीचे ले गई और उन दोनों से अपने साथ समागम करने के लिए कहा| पहले तो दोनों ने इनकार कर दिया, किंतु फिर उसकी धमकी से डरकर जैसा वह चाहती थी, उन्होंने उसके साथ किया| इसके बाद उस स्त्री ने उन दोनों से उनकी एक-एक अंगूठी मांगी, फिर उसने एक छोटा-सा संदूक निकाला और उनसे पूछा, “जानते हो इसमें क्या है, यह किसलिए है?”
दोनों ने इनकार में सिर हिलाते हुए कहा, “हमें नहीं मालूम, तुम्हीं बता दो कि इसमें क्या है?”
तब उस सुंदरी ने कहा, “इसमें उन लोगों की निशानियां हैं, जो तुम्हारी तरह मुझसे संबंध बना चुके हैं| यह अट्ठानवे अंगूठियां थीं, दो तुम्हारी और मिलने पर पूरी सौ हो गई हैं| इस दैत्य की इतनी कड़ी निगरानी के बाद भी मैंने सौ बार ऐसी मनमानी की है| यह दुराचारी दैत्य मुझ पर इतना आसक्त है कि क्षण भर भी मुझे बाहर नहीं रहने देता| हमेशा इस शीशे के संदूक में छुपाकर समुद्र की तलहटी में रखता है| लेकिन इसकी इतनी सारी चालबाजी और रक्षा प्रबंध पर भी मैं जो चाहती हूं, कर लेती हूं और इस बेचारे के सारे प्रबंध बेकार हो जाते हैं| अब मेरे हाल से तुम यह समझ लो कि स्त्री जो चाहती है, वह कर लेती है|”
इसके बाद वह अंगूठियों को लेकर अपनी जगह पहुंची और उन दोनों को जाने के लिए संकेत कर दिया| उस दैत्य को स्वयं से ज्यादा पीड़ित देख दोनों भाई तुरंत फारस देश लौट आए|
इस घटना के बाद शहरयार का नजरिया औरतों के प्रति बिलकुल ही बदल गया| शाहजमां के जाने के बाद उसने अपने वज़ीरे-आला को आदेश दिया कि वह उससे निकाह करने के लिए किसी सामंत की बेटी को लाए| वज़ीरे-आला ने एक अमीर की बेटी ला खड़ी की| शहरयार ने उसके साथ निकाह किया और रात भर उसके साथ बिताकर सुबह वज़ीरे-आला को आज्ञा दी कि वह उसे ले जाकर मार डाले और अगली रात के लिए किसी अन्य सुंदरी का इंतजाम करे| वज़ीर ने उस बेगम को मरवा डाला और शाम को किसी दूसरे अमीर की बेटी को विवाहार्थ ले आया| रात भर उसके साथ सह-शयन करके शहरयार ने उसे भी मरवा डाला| इसी प्रकार शहरयार ने सैकड़ों अमीरों, सरदारों और सामंतों की बेटियों के साथ निकाह किया और दूसरी सुबह उन्हें मरवा डाला| अब सामान्य नागरिकों की बेटियों की बारी आई| साथ ही इस जघन्य अन्याय की बात सब जगह फैल गई| सारे शहर में शोक संताप और रुदन की आवाजें उठने लगीं| जो कन्याएं अभी तक बची थीं, उनके माता-पिता और सगे-संबंधी अत्यंत दुखी रहने लगे| कई लोग तो भयभीत होकर अपनी बेटियों को लेकर नगर से ही पलायन कर गए और दूसरे देशों में जा बसे|
फारस के मंत्री की भी दो कुंवारी बेटियां थीं| बड़ी का नाम शहरजाद और छोटी का नाम दुनियाजाद था| शहरजाद अपनी बहन तथा सहेलियों के मुकाबले में अधिक तीक्ष्ण बुद्धि की थी| वह जो भी बात सुनती या किसी पुस्तक में पढ़ती, उसे कभी नहीं भूलती थी| उसे बहुत प्राचीन मनीषियों की सूक्तियां और कविताएं जुबानी याद थीं| वह स्वयं भी गद्य एवं पद्य रचना में निपुण थी| इन सारे गुणों के अतिरिक्त उसमें अव्दितीय सौंदर्य भी था| एक दिन उसने अपने पिता से कहा, “अब्बा हुजूर! मैं आपसे एक निवेदन करना चाहती हूं और आपको मेरी बात माननी ही पड़ेगी|”
“क्या बात है बेटी?” मंत्री ने पूछा|
“वह मैं अवश्य बताऊंगी, पर पहले आप वादा करें कि आप मेरी बात मानेंगे|” शहरजाद बोली|
“ठीक है, यह वादा रहा कि यदि बात मानने लायक हुई तो अवश्य मानूंगा| अब बताओ|” मंत्री ने उसे आश्वासन देते हुए कहा|
तब शहरजाद ने कहा, “अब्बा हुजूर! बादशाह शहरयार इस मुल्क की बहन-बेटियों पर जिस तरह के जुल्म ढा रहे हैं, उसे देकर मुझे बहुत दुख हुआ है| मैं चाहती हूं कि बादशाह के इन जुल्मों का सिलसिला रुके| अत: मैंने निश्चय किया है कि मैं स्वयं बादशाह के साथ निकाह करूं|”
“यह तुम क्या कह रही हो, बेटी! तुम पर यह पागलपन कैसे सवार हो गया? तुम भला बादशाह को इस प्रकार जुल्म करने से कैसे रोक सकोगी?”
शहरजाद बोली, “मैं अवश्य रोक सकूंगी, अब्बा हुजूर! बशर्तें आप मेरा निकाह बादशाह के साथ कर दें| मैं आपको विश्वास दिलाती हूं कि मेरे साथ शादी करने के बाद बादशाह ऐसे हत्याकांड करना बंद कर देगा|”
बेटी का ऐसा निश्चय सुनकर मंत्री कांप उठा और बोला, “बेटी! तू तो पागल हो गई है| क्या तुझे पता नहीं है कि बादशाह ने क्या प्रण किया हुआ है? तू किस तरह से बादशाह को रोक सकेगी? बेटी तू व्यर्थ ही अपने प्राण गंवा बैठेगी|”
मंत्री ने आगे कहा, “मैं तुझे ऐसी विकट परिस्थिति में कैसे डाल सकता हूं? कौन पिता ऐसा होगा जो अपनी प्यारी संतान के लिए ऐसा भी सोच सकेगा?”
मंत्री के इस कथन के बावजूद भी शहरजाद अपनी जिद पर अड़ी रही और बादशाह से विवाह करने का आग्रह करती रही| तंग आकर पिता ने पुत्री से कहा, “बेटी! तू मुझे बेकार ही गुस्सा दिला रही है| कान खोलकर सुन ले – जो भी व्यक्ति किसी काम को सोचे-समझे बगैर करता है, उसे बाद में पछताना ही पड़ता है| मुझे डर है कि कहीं तेरी दशा उस गधे की तरह न हो जाए, जो सुख से रहता था – किंतु मूर्खता के कारण मुसीबत में पड़ गया|”
“उस गधे की कहानी क्या है, अब्बा हुजूर? यह कहानी मुझे भी तो सुनाइए|”
तब मंत्री ने अपनी बेटी को वह कहानी सुनाई|