Homeशिक्षाप्रद कथाएँप्रत्युपकार – शिक्षाप्रद कथा

प्रत्युपकार – शिक्षाप्रद कथा

प्रत्युपकार - शिक्षाप्रद कथा

शेरकी गुफा थी| खूब गहरी, खूब अँधेरी| उसी में बिल बनाकर एक छोटी चुहिया भी रहती थी| शेर जो शिकार लाता, उसकी बची हड्डियों में लगा मांस चुहिया के लिये बहुत था| शेर जब जंगल में चला जाता, तब वह बिल से निकलती और हड्डियों में लगे मांस को कुतरकर पेट भर लेती| खूब मोटी हो गयी थी वह|

एक दिन शेर दोपहर में सोया था| चुहिया को भूख लगी| वह बिल से बाहर निकली और उसने अपना पेट भर लिया| पास रहते-रहते उसका भय दूर हो गया था| पेट भर जाने पर वह शेर के शरीरपर चढ़ गयी| शेर का कोमल चिकना शरीर उसे बहुत पसंद आया| उसे बड़ा आनन्द आया| वह उसके पैर, पीठ, गर्दन और मुख पर इधर-से-उधर दौड़ने लगी|

इस धमाचौकड़ी में शेर की नींद खुल गयी| उसने पंजा उठाकर चुहिया को पकड़ लिया और डांटा – ‘क्यों री, मेरे शरीर पर यह क्या ऊधम मचा रखा है तूने?’

चुहिया की सिट्टी-पिट्टी गम हो गयी| अब मरी तब मरी| किसी प्रकार काँपते-काँपते बोली – ‘महाराज! मुझसे सचमुच बड़ा भारी अपराध हो गया! पर आप समर्थ हैं, यदि मुझे क्षमा करके प्राणदान दे दें तो मैं शक्ति भर आपकी सेवा करुँगी|’

शेर हँस पड़ा| उसने चुहिया को छोड़ते हुए कहा – ‘जा, तू मेरी सेवा तो क्या करेगी और जंगल के राजा को नन्हीं चुहिया की सेवा से करना भी क्या है, पर तुझे क्षमा करता हूँ|’

संयोग की बात – किसी अजायब घर को जीवित शेर की आवश्यकता थी| जंगल में जाल लगाया गया| शेर उसमें फँस गया| वह दहाड़ने और चिल्लाने लगा|

शेर बहुत शक्तिशाली था| वह बार-बार पंजे मारता था, दाँतों से जाल को काटना चाहता था और उछलकर भागना चाहता था| लेकिन जाल ऐसा-वैसा नहीं था| शेर को फँसाने के लिये भला कोई कमजोर जाल कैसे बिछा सकता है| शेर जितना उछलता और पंजे मारता था, जाल के फंदे उतने ही कसते जाते थे| शेर के पंजे के नखों और मुँह से भी रक्त आने लगा था, किंतु वह बराबर जाल को नोचता ही जाता था| इससे हुआ यह कि जाल बहुत अधिक कड़ा हो गया| उसके बन्धन इतने कस गये कि शेर अब हिल भी नहीं सकता था|

जंगल का राजा शेर जाल में पड़ा-पड़ा दहाड़ रहा था| वह कभी किसी से डरा नहीं था, कभी किसी ने उसे बाँधा नहीं था, उसे बन्धन में पड़ना बहुत बुरा लग रहा था, किंतु अब वह कर भी क्या सकता था| वह दहाड़ रहा था और कुछ-कुछ डर भी रहा था कि कोई उसे पकड़ने आवेगा| उसे क्रोध तो खूब ही आ रहा था|

शेर की आवाज चुहिया ने पहचानी| वह दौड़ी आयी और बोलो – ‘महाराज! आप चुप रहें| दहाड़ने से दूर गये शिकारी दौड़ आयेंगे और मुझे भी डर लगेगा| मैं काम नहीं कर सकूँगी| मैं जाल कुतर देती हूँ|’

शेर चुप हो गया| बड़ा मजबूत जाल था| चुहिया के दाँतों से रक्त निकलने लगा, पर उसने जाल तो काट ही दिया| शेर कुछ बोले, इससे पहले चुहिया ने कहा – ‘आप जल्दी भागिये! मेरा क्या यह कम सौभाग्य है कि मैं अपने जीवनदाता एवं जंगल के महाराज की कुछ सेवा कर सकी|’ शेरने केवल इतना कहा –

‘भलो भलाइहि पै लहइ|’

 

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