मुर्ख बारहसिंगा – शिक्षाप्रद कथा
एक समय की बात है| एक बारहसिंगा एक तालाब पर पानी पी रहा था| अभी बारहसिंगे ने एक-दो घूंट पानी ही पिया था कि उसकी दृष्टि तालाब के पानी में दिखाई देते अपने प्रतिबिम्ब पर पड़ी| अपने सुन्दर सींगों को देखकर वह प्रसन्न हो उठा-‘वाह! कितने सुन्दर हैं मेरे सींग!’
तभी उसकी नजर अपने पतले पैरों पर पड़ी – ‘ओह! कितने भद्दे हैं मेरे ये पैर? कितना अच्छा होता यदि मेरे पैर भी मेरे सींगों की भांति ही सुंदर होते|’ यह सोचकर वह निराश हो गया| अचानक उसके चौकन्ने कानों ने शिकारियों के आने की आहट सुनी| खतरा भांपते ही वह वहां से भाग खड़ा हुआ| बहुत जल्दी वह लम्बी-लम्बी छलांगें मारता हुआ एक पहाड़ी पर पहुंच गया|
वह पहाड़ी के दूसरी ओर घने जंगल में उतरा और तेजी से दौड़ पड़ा| परंतु हाय रे भाग्य! अभी उसने कुछ ही छलांगें भरी थीं कि उसके सींग एक घनी झाड़ी की टहनियों से उलझ गए| सींगों के अचानक उलझ जाने के कारण उसे एक तेज झटका-सा लगा उसे रुकना पड़ा| उसकी तलाश में शिकारी भी पहाड़ी पर चढ़कर अब घने जंगल में दाखिल हो रहे थे| उसने पेड़ों की टहनियों में फंसे सींग छुड़ाने के लिए जोर लगाया| मगर सफलता नहीं मिली| वह बुरी तरह छटपटाने लगा, मगर कोई लाभ न हुआ बल्कि उसके छटपटाने से झाड़ी को बुरी तरह हिलती देख शिकारी भी उस ओर आकर्षित हुए और उसके बिल्कुल करीब आ गए|
बारहसिंगा समझ गया कि उसका अन्त निकट आ गया है| उसने शिकारियों की ओर याचना भरी दृष्टि से देखा| मगर शिकारी क्या जाने दया भाव? एक शिकारी ने तीर चलाया, जो ठीक निशाने पर लगा और बारहसिंगा अधमरा-सा होकर नीचे भूमि पर गिर गया| मृत्यु करीब थी| बारहसिंगे ने मरने से पहले सोचा – ‘मैं अपने पतले पैरों से घृणा करता था, जबकि यही पैर मुझे सुरक्षित यहां तक लाए और जिन सींगों पर मुझे इतना अभिमान था, वे ही मेरी मृत्यु का कारण बने! किसी ने ठीक ही कहा है, किसी चीज का सुंदर उपयोगी होना बेहतर है|’ यही सोचता-सोचता बारहसिंगा चल बसा|
निष्कर्ष: सुंदरता नहीं गुणों को देखो|