मोतियों का हार (तेनालीराम) – शिक्षाप्रद कथा
रोजाना की भांति कृष्णा देव राय अपने दरबार में बैठे अपनी प्रजा के दुख-सुख सुन रहे थे कि तभी उनके दरबार में दो भाई आये| उनमें से छोटा भाई कह रहा था कि उनके पिता सेठ धर्मदास जी के पास एक बहुत कीमती हार था परन्तु बड़ा भाई कह रहा था कि हार नकली था और मेरे से कहीं खो गया है| इतना सुनते ही छोटे भाई ने कहा कि महाराज हार खो गया, मुझे इसका गम नहीं है न ही मैं उसमें से अपना कोई हिस्सा मांग रहा हूं| परन्तु यह मेरे स्वर्गवासी पिता की प्रतिष्ठा पर जो तोहमत लगा रहा है वह मुझसे बर्दाश्त नहीं होती| जो पिता अपने नौकरों में असली जेवर दान में दे दिया करते थे तो भला अपने लिए नकली मोतियों का हार बनवायेंगे|
अब यदि हार सामने होता तो कुछ फैसला भी हो सकता था| परन्तु बड़े भाई के अनुसार हार उससे कहीं खो गया है| अब झूठ और सच की तथा असली-नकली की पहचान कैसे हो सकती थी| राजा कृष्णदेव राय भी बड़ी उलझन में फंस गये और सोचने लगे कि क्या फैसला किया जाए| सहायता की आशा से उन्होंने महाचतुर, ज्ञानी तेनालीराम पर नज़र दौड़ाई|
तेनालीराम ने महाराज का इशारा जानकार उन दोनों भाईयों से बोले कि सेठ जी अपना कीमती सामान जहां रखते थे उन डिब्बों को तुम यहां दरबार में कल ले आओ, तभी फैसला किया जायेगा|
अगले दिन खाली डिब्बों सहित दोनों भाई दरबार में फिर से उपस्थित हुए| तेनालीराम ने सभी डिब्बों को उलट-पलटकर अच्छी तरह से देखा| फिर उनकी नज़र छोटी-सी संदूकची पर ठहर गई| तेनालीराम ने कहा, “इतनी कीमती संदूकची, इसमें तुम्हारे पिता जी क्या रखते थे?” तब छोटे भाई ने कहा कि इसमें वो अपनी सबसे प्रिय वस्तु रखते थे| तब तेनालीराम ने उनसे पूछा-उनकी सबसे प्रिय वस्तु मोतियों का हार था| तभी तेनालीराम ने कहा, “महाराज अब भला आप यह सोचिये जो वस्तु सेठ जी की सबसे प्रिय वस्तु थी और वह इसे इतनी कीमती संदूकची में रखते थे अब भला वह नकली कैसे हो सकती है|” तभी बड़े भाई ने महाराज से क्षमा मांगी और भाई को आधा हिस्सा देने का वायदा करके वापिस चले गए| तेनालीराम की सूझ-बूझ और अक्लमंदी की सारे दरबारी वाह-वाह करने लगे|