महान शिव भक्त हरिकेश यक्ष (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
प्राचीन काल में रत्नभद्र नाम से प्रसिद्ध एक धर्मात्मा यक्ष गंधमादन पर्वत पर रहता था| उनके पूर्णभद्र नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ| अंत में अनेक भोगों को भोगकर उस रत्नभद्र ने शिव ध्यान-परायण हो परम शांत शिवलोक को प्राप्त किया| पिता के शिवलोक चले जाने पर पूर्णभद्र ने संतानहीन होने से अपनी भार्या कनककुंडला नाम की यक्षिणी से कहा – “प्रिये! मुझे पुत्र के बिना यह राज्य और महल आदि अब शून्य मालुम होता है|”
कनककुंडला बोली – “प्राणनाथ! अप ज्ञानवान होकर पुत्र के लिए क्यों खेद करते हैं| यदि यही इच्छा है तो पुत्र मिलने का उपाय कीजिए| इस जगत में उद्यमी लोगों को क्या दुर्लभ है? जो प्राणी प्रारब्ध के भरोसे रहते हैं, वह नितांत कापुरुष हैं, क्योंकि अपना किया हुआ कर्म ही प्रारब्ध है और कुछ नहीं| इस कारण प्रतिकूल प्रारब्ध को शांत करने के लिए समस्त कारणों के भी कारणरूप भगवान शिव की शरण में जाना चाहिए| यदि आप सर्वश्रेष्ठ पुत्र चाहते हैं तो भगवान शिव की शरण ग्रहण कीजिए|”
अपनी पत्नी की बात सुनकर यक्षराज ने गीत-वाद्य से भगवान शिव का पूजन कर पुत्र की अभिलाषा पूर्ण की| उसका नाम ‘हरिकेश’ पड़ा| पुत्र उत्पन्न होने की प्रसन्नता से उसने अनेक दान-पुण्य किए| जब हरिकेश आठ वर्ष का हुआ तभी से वह खेल में धूलि (बालू) का शिवलिंग बनाकर तृणादि (दूर्वा) से उनका पूजन करता और अपने साथियों को ‘शिव’ नाम से ही पुकारता था| वह रात-दिन हे चंद्रशेखर! हे भूतेश! हे मृत्युंजय! हे नीलकंठ! आदि पवित्र नामों का उच्चारण करता रहता और मित्रों को प्रेम करता हुआ बार-बार इन्हीं नामों से पुकारता रहता था| उसके कान के नाम के अतिरिक्त अन्य किसी को ग्रहण नहीं करते थे| वह शिव मंदिर को छोड़कर किसी अन्य जगह नहीं जाता, उसके नेत्र शिव के अतिरिक्त और कुछ देखने की इच्छा नहीं रखते थे| वह स्वप्न में भी भगवान शिव को ही देखा करता था|
हरिकेश की यह दशा देखकर उसके पिता ने उसे गृहकार्य में लगाने की अनेक चेष्टाएं कीं, किंतु उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ| अंत में हरिकेश घर से निकल गया| कुछ दूर जाकर उसे भ्रम हो गया और वह मन ही मन कहने लगा – ‘हे शंकर! कहां जाऊं, कहां रहने से मेरा कल्याण होगा?’ यह सोचकर उसने अपने मन में विचार किया कि जिसकी कहीं ठिकाना नहीं है, उसका काशीपुरी ही आधार है| इस प्रकार निश्चय कर वह काशीपुरी को गया| जिस अविमुक्त क्षेत्र में पंचभौतिक देह त्याग कर प्राणों का शिव की प्रसन्नता से फिर देह से संबंध नहीं रहता, उस आनंदवन में जाकर तप करने लगा|
कुछ समय बाद भगवान शिव ने पार्वती को अपना विहार वन दिखाया| वह अनेक सुंगध्युक्त पल्ल्वों से शोभित था| शिव बोले – “हे देवी! जैसे तुम मुझको बहुत प्रिय हो, वैसे ही यह आनंद वन भी मुझे परम प्रिय है| मेरे अनुग्रह से इस आनंद वन में में मरे हुए को जन्म-मरण का बंधन नहीं होता अर्थात वह फिर संसार में जन्म नहीं लेता| पुण्यात्मा के कर्मबीज विश्वनाथ की प्रज्वलित अग्नि में जल जाते हैं, उसी से फिर वे गर्भाशय में नहीं आते| काशीवासी लोगों के देहांत-समय में मैं ही तारक ब्रह्म-ज्ञान का उपदेश देता हूं| जिससे वे उसी क्षण मुक्त हो जाते हैं| कलियुग में विश्वनाथ देव का दर्शन-पूजन, काशीपुरी, भागीरथी गंगा आदि का सेवन तथा सत्पात्र को दान विशेष फलदायक होता है| हे देवी! काशीवासी सदा मुझमें ही बसते हैं| इससे मैं उनको अंत में संसार-सागर से पार कर देता हूं| यह मेरी प्रतिज्ञा है|”
इस तरह वार्तालाप करते-करते भगवान शिव उस स्थान पर गए, जहां हरिकेश समाधि लगाए बैठा था| उसको देखकर पार्वती ने कहा – “भगवन! यह आपका तपस्वी भक्त है| इस समाधिस्थ भक्त को वर देकर इसका मनोरथ पूर्ण कीजिए| इसका चित्त केवल आपमें ही लगा है और इसका जीवन भी आपके ही अधीन हैं|”
पार्वती की बात सुनकर भगवान शिव उसके पास गए और उन्होंने समाधि में स्थित उस हरिकेश को हाथ से स्पर्श किया| दया सिंधु का स्पर्श पाकर उस यक्ष ने आंखें खोलकर अपने सम्मुख प्रत्यक्ष अपने अभीष्ट को देखा| गद्गद स्वर में यक्ष ने कहा कि हे शंभो! हे पार्वतीपते! हे शंकर! आपकी जय हो| आपके कर-कमलों का स्पर्श पाकर मेरा यह शरीर अमृतरूप हो गया|
इस प्रकार प्रिय वचन सुनकर भगवान शिव बोले – “हे यक्ष! तुम इसी क्षण मेरे वर से मेरे क्षेत्र के दंडनायक हो जाओ| आज से तुम दुष्टों के दंडदायक और पुण्यवानों के सहायक बनो और दंडपाणि नाम से विख्यात होकर सब उद्भट गणों का नियंत्रण करो| मनुष्यों में सत्य, अर्थ नामवाले संभ्रम और उद्भ्रम – ये दोनों गण सदा तुम्हारे साथ रहेंगे| तुम काशीवासी जनों के अन्नदाता, प्राणदाता, ज्ञानदाता होओ और मेरे मुख से निकले तारक मंत्र के उपदेश से मोक्षदाता होकर नियमित रूप से काशी में निवास करो|”
भगवान शिव की कृपा से वही हरिकेश यक्ष काशी में दंडपाणि के रूप में स्थित हो गया और भक्तों के कल्याण में लग गया|
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