व्रत
स्वामी स्वतंत्रतानन्द जी एक कर्मठ साधु थे| वह प्रतिदिन अपने आश्रम में जनता को उपदेश देते थे| प्रतिदिन वह जनता और श्रोताओं से अनुरोध करते थे कि यदि वे जीवन में आगे बढ़ना चाहते हो तो उन्हें किसी बुराई को छोड़ने का व्रत लेना होगा और किसी अच्छी बात को जीवन में अपनाने का संकल्प लेना चाहिए|
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उनकी सभा में शहर और समीपस्थ गाँवों के बहुत से लोग आते थे| अनेक प्रमुख नगरिक और अधिकारी भी आते थे| स्वामी जी और जनता को किसी ने सूचना दी कि सभा में प्रतिदिन एक नामी चोर भी आता है|
एक दिन सभा में वह चोर खड़ा हो गया| उसने हाथ जोड़कर स्वामी जी से कहा- “मैं भी अपनी एक बुराई छोड़ना चाहता हूँ| मुझे एक मौका दीजिए|” स्वामी जी ने कहा- “अभी मौका नहीं आया है| थोड़ा सब्र करो, कुछ दिन बाद एक व्रत ले लेना|” वह चोर नहीं माना| उसने कहा- “मैं आज ही अपनी एक बुराई छोड़ना चाहता हूँ| बताइए, मैं क्या छोड़ूँ?” स्वामी जी ने कहा- “तुम अपनी बुराई छोड़ना चाहते हो तो चोरी छोड़ दो|” स्वामी जी की बात सुनकर चोर काँप उठा| हाथ जोड़कर बोला- “महाराज, मैं चोरी छोड़ दूँगा तो करूँगा क्या? यह तो बहुत बड़ी बात है|” स्वामी जी बोले- “तुम तुरंत चोरी छोड़ने में संकोच करते हो तो यह व्रत लो कि भविष्य में सच बोलोगे| यदि तुमने चोरी की होगी तो स्वीकार कर लोगे कि तुमने चोरी की है और पूछने पर चोरी में लिया सामान भी बतला दोगे|”
बहुत दिन तक चोरी से बचता रहा, लेकिन अंत में पैसों की कमी होने पर उसने चोरी कर ली| चोरी होते ही उसकी खबर फैल गई| जिसके यहाँ चोरी होती थी, वह चोर के पास पहुँचाता| चोर ने स्वामी जी से सत्य बोलने का व्रत लिया था, फलतः जब भी वह चोरी करता, तब पूछे जाने पर वह चोरी की बात मंजूर कर लेता और चोरी माल लौटा देता| वह अपने सत्य बोलने के व्रत से परेशान था, परंतु उसने सब कठिनइयों के बावजूद सत्य बोलने का व्रत निभाया और अंत में चोरी की बुराई से उसे मुक्ति मिल गई| इस कहानी से हमें यही सीख मिलती है कि हमें अपनी बुराइयों को दूर करने का व्रत लेना चाहिए|