Homeशिक्षाप्रद कथाएँविश्वामित्र की दक्षिणा

विश्वामित्र की दक्षिणा

विश्वामित्र की दक्षिणा

दोपहर तक राजा हरिश्चंद्र अपनी पत्नी शैव्या और पुत्र रोहिताश्व  के साथ नगर में भटकते रहे, परन्तु उन्हें कहीं कम नहीं मिला| हारकर वे बाजार में एक किनारे बैठ गए और अपनी पत्नी से बोले, “शैव्या! आज एक महिना पूरा हो रहा है|

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अब क्या किया जाए? विश्वामित्र जी की दक्षिणा आज सूर्यास्त तक न दी गई तो मेरे सत्य वचन की रक्षा कैसी होगी? क्या प्राण रहते मेरा वचन सत्य हो जाएगा?”

“आप चिंता न करें स्वामी!” शैव्या ने कहा, “भगवन आशुतोष अवश्य आपके सत्य की रक्षा करेंगे| वे अपनी नगरी में आपको सत्य से कभी गिरने नहीं देंगे| अभी संध्या होने में आधा दिन पड़ा है|कोई मार्ग निकल ही आएगा| यह मेरा मन कहता है|”

“तुम ठीक कहती हो प्रिये!” राजा हरिश्चंद्र ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “विश्वास और धैर्य बहुत बड़े सत्य हैं| इनका साथ न छोड़ने वाला, कदापि लज्जित नहीं हो सकता|”

दोनों एक आदर्श पति-पत्नी की तरह एक-दुसरे को ढाढस बंधा रहे थे और रोहिताश्व अपनी माँ की गोद में सिर रखकर बेखबर सो रहा था|

थोड़ी दूर पर खड़े विश्वामित्र उनकी ओर कुटिलता से मुस्कुरा रहे थे|

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