विश्वामित्र का अहंकार
एक दिन इंद्र की सभा में विश्वामित्र और वशिष्ठ के आलावा देवगण, गंधर्व, पितर और यक्ष आदि बैठे हुए चर्चा कर रहे थे की इस धरती पर सबसे बड़ा दानी, धर्मात्मा और सत्यवादी कौन है?
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महर्षि वशिष्ठ ने कहा, “संसार में ऐसे एकमात्र मेरे शिष्य राजा हरिश्चंद्र है| हरिश्चंद्र जैसा सत्यवादी, दाता, प्रजावत्सल, प्रतापी, धर्मनिष्ठ राजा न तो पृथ्वी पर पहले कभी हुआ है और ना ही कभी होगा|”
जब किसी के प्रति वैमनस्य की भावना हो,तो दूसरे की छोटी से छोटी बात विक्षेप का कारण हो जाती है| इसलिए विश्वामित्र क्रोधित हो उठे, “एक पुरोहित की दृष्टि में उसके यजमान में ही समस्त गुणों का निवास होता है| मै जानता हू राजा हरिश्चन्द्र को| मैं स्वयं उसकी परीक्षा लूँगा| इससे वशिष्ठ के यजमान की पोल अपने आप खुल जाएगी|”
महर्षि वशिष्ठ के लिए विश्वामित्र के कहे गए ये वचन देवताओं को अच्छे न लगे| इनमे उन्हें विश्वामित्र के अहंकार की स्पष्ट गंध आ रही थी| वे सोच रहे थे कि ऋषि भी अगर ऐसी भाषा का प्रयोग करेंगे, तो सामान्य व्यक्ति का क्या होगा?