विश्वास हो तो भगवान सदा समीप हैं
दुर्योधन के कपट-द्यूत में सर्वस्त्र हारकर पांडव द्रौपदी के साथ काम्यक वन में निवास कर रहे थे, परंतु दुर्योधन के चित्त को शांति नहीं थी| पांडवों को कैसे सर्वथा नष्ट कर दिया जाए, वह सदा इसी चिंता में रहता था|
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संयोगवश महर्षि दुर्वासा उसके यहां पधारे और कुछ समय तक वहीं रहे| अपनी सेवा से दुर्योधन ने उन्हें संतुष्ट कर लिया| जाते समय महर्षि ने उससे वरदान मांगने को कहा| दुर्योधन बोला, “महर्षि, पांडव हमारे बड़े भाई हैं| यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं चाहता हूं कि जैसे आपने अपनी सेवा का अवसर देकर मुझे कृतार्थ किया है, वैसे ही मेरे उन भाइयों को भी कम से कम एक दिन अपनी सेवा का अवसर दें| परंतु मेरी इच्छा है कि आप उनके यहां अपने समस्त शिष्यों के साथ आतिथ्य ग्रहण करें और तब पधारें जब महारानी द्रौपदी भोजन कर चुकी हों, जिससे मेरे भाइयों को देर तक भूखा न रहना पड़े|”
बात यह थी कि पांडव जब वन में गए, तब उनके प्रेम से विवश बहुत से ब्राह्मण भी उनके साथ-साथ गए| किसी प्रकार वे लोग लौटे नहीं| इतने सब लोगों के भोजन की व्यवस्था वन में होनी कठिन थी| इसलिए धर्मराज युधिष्ठिर ने तपस्या तथा स्तुति करके सूर्य नारायण को प्रसन्न किया| सूर्य ने युधिष्ठिर को एक बरतन देकर कहा, “इसमें वन के कंद-शाक आदि लाकर भोजन बनाने से वह भोजन अक्षय हो जाएगा| उससे सहस्त्रों व्यक्तियों को तब तक भोजन दिया जा सकेगा, जब तक द्रौपदी भोजन न कर ले| द्रौपदी के भोजन कर लेने पर उस दिन पात्र में कुछ नहीं बचेगा|”
दुर्योधन इस बात को जानता था| इसी से उसने दुर्वासा जी से द्रौपदी के भोजन कर चुकने पर पांडवों के यहां जाने की प्रार्थना की| दुर्वासा मुनि ने उसकी बात स्वीकार कर ली और वहां से चले गए| दुर्योधन बड़ा प्रसन्न हुआ यह समझकर कि पांडव उन्हें भोजन नहीं दे सकेंगे और तब ये महक्रोधी मुनि अवश्य ही शाप देकर उन्हें नष्ट कर देंगे| बुरी नीयत का यह प्रत्यक्ष नमूना है|
महर्षि दुर्वासा तो दुर्योधन को वचन दे ही चुके थे| वे अपने दस सहस्त्र शिष्यों को लेकर एक दिन दोपहर के बाद काम्यक वन में पांडवों के यहां जा धमके| धर्मराज युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों ने उठकर महर्षि को प्रणाम किया और उन्हें आसन पर बिठाया|
महर्षि बोले, “राजन ! आपका मंगल हो| हम सब भूखे हैं और अपनी मध्याह्न-संध्या भी हमने नहीं की है| आप हमारे भोजन की व्यवस्था करें| हम पास के सरोवर में स्नान करके, संध्या-वंदन से निवृत्त होकर शीघ्र आते हैं|”
स्वभावत: धर्मराज ने हाथ जोड़कर नम्रता से कह दिया, ‘देव ! संध्यादि से निवृत्त होकर शीघ्र पधारें|’ पर जब दुर्वासाजी शिष्यों के साथ चले गए, तब चिंता से युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों का मुख सुख गया| उन्होंने द्रौपदी को बुलाकर पूछा तो पता लगा कि वे भोजन कर चुकी हैं| महाक्रोधी दुर्वासा भोजन न मिलने पर अवश्य शाप देंगे – यह निश्चित था और उन्हें भोजन दिया जा सके, इसका कोई भी उपाय नहीं था| अपने पतियों को चिंतित देखकर द्रौपदी ने कहा, “आप लोग चिंता क्यों करते हैं? श्याम सुंदर सारी व्यवस्था कर देंगे|”
धर्मराज बोले, “श्रीकृष्ण यहां होते तो चिंता की कोई बात नहीं थी, किंतु अभी तो वे हम लोगों से मिलकर अपने परिवारों के साथ द्वारका गए हैं| उनका रथ तो अभी द्वारका पहुंचा भी नहीं होगा|” द्रौपदी ने दृढ़ विश्वास से कहा, ‘वे कहां आते-जाते हैं? ऐसा कौन-सा स्थान है, जहां वे नहीं हैं? वे तो यहीं हैं और अभी-अभी आ जाएंगे|”
द्रौपदी झटपट कुटिया में चली गई और उस जनरक्षक आर्तिनाशक मधुसूदन को मन ही मन पुकारने लगी| पांडवों ने देखा कि बड़े वेग से चार श्वेत घोड़ों से जुता द्वारकाधीश का गरुड़ध्वज रथ आया और रथ के खड़े होते-न-होते वे मयूर मुकुटी उस पर से कूद पड़े| परंतु इस बार उन्होंने न किसी को प्रणाम किया और न किसी को प्रणाम करने का अवसर दिया| वे तो सीधा कुटिया में चले गए और अत्यंत क्षुधातुर की भांति आतुरता से बोले, “कृष्णे ! मैं बहुत भूखा हूं झटपट कुछ भोजन दो|”
“तुम आ गए भैया ! मैं जानती थी कि तुम अभी आ जाओगे|” द्रौपदी में जैसे नए प्राण आ गए| वे हड़बड़ाकर उठीं, “महर्षि दुर्वासा को भोजन देना है …”
“पहले मुझे भोजन दो| फिर और कोई बात| मुझसे खड़ा नहीं हुआ जाता भुख के मारे|” आज श्याम सुंदर को अद्भुत भुख लगी थी|
“परंतु मैं भोजन कर चुकी हूं| सूर्य का दिया बरतन धो-मांजकर धर दिया है| भोजन है कहां? उसी की व्यवस्था के लिए तुम्हें पुकारा है तुम्हारी इस कंगालिनी बहिन ने|” द्रौपदी चकित होकर देख रही थी, उस लीलामय का मुख|
“बातें मत बनाओ ! मैं बहुत भूखा हूं| कहां है वह बरतन? आओ मुझे दो|” श्रीकृष्ण ने जैसे कुछ सुना ही नहीं| द्रौपदी ने चुपचाप बरतन उठाकर उनके हाथ में दे दिया| श्याम ने बरतन को घुमा-फिराकर उसने भीतर देखा| बरतन के भीतर चिपका शाक के पत्ते का एक नन्हा टुकड़ा उन्होंने ढूंढ़कर निकाल ही लिया और अपनी उंगलियों से उसे लेकर बोले, “तुम तो कहती थीं कि कुछ है ही नहीं| यह क्या है? इससे तो सारे विश्व की क्षुधा दूर हो जाएगी|”
द्रौपदी चुपचाप देखती रहीं और उन द्वारिकाधीश ने वह शाक पत्र मुंह में डालकर कहा, “विश्वात्मा इससे तृप्त हो जाएं,” और बस, डकार ले ली| विश्वात्मा श्रीकृष्ण ने तृप्ति की डकार ले ली तो अब विश्व में कोई अतृप्त रहा कहां|
वहां सरोवर में स्नान करते महर्षि दुर्वासा तथा उनके शिष्यों की बड़ी विचित्र दशा हुई| उनमें से प्रत्येक को डकार-पर-डकार आने लगी| सबको लगा कि कंठ तक पेट में भोजन भर गया है| आश्चर्य से वे एक दूसरे की ओर देखने लगे| अपनी और शिष्यों की दशा देखकर दुर्वासा जी ने कहा, “मुझे अंबरीष की घटना का स्मरण हो रहा है| पांडव वन में हैं, उनके पास वैसे ही भोजन की कमी है, यहां हमारा आना ही अनुचित हुआ और अब हमसे भोजन किया नहीं जाएगा| उनका भोजन व्यर्थ जाएगा तो वे क्रोध करके हम सबको एक पल में नष्ट कर सकते हैं, क्योंकि वे भगवद्भक्त हैं| अब तो एक ही मार्ग है कि हम सब यहां से चुपचाप भाग चलें|”
जब गुरु ही भाग जाना चाहें तो शिष्य कैसे टिके रहें| दुर्वासा मुनि जो शिष्यों के साथ भागे तो पृथ्वी पर रुकने का उन्होंने नाम ही नहीं लिया| सीधे ब्रह्मलोक जाकर वे खड़े हुए|
पांडवों की झोंपड़ी से शाख का पत्ता खाकर श्यामसुंदर मुस्कुराते निकले| अब उन्होंने धर्मराज का अभिवादन किया और बैठते हुए सहदेव को आदेश दे दिया कि महर्षि दुर्वासा को भोजन के लिए बुला लाएं| सहदेव गए और कुछ देर में अकेले लौट आए| महर्षि और उनके शिष्य होते तब तो मिलते| वे तो अब पृथ्वी पर ही नहीं थे|
“दुर्वासा जी अब पता नहीं कब अचानक आ धमकेंगे|” धर्मराज फिर चिंता करने लगे, क्योंकि दुर्वासा जी का यह स्वभाव विख्यात था कि वे किसी के यहां भोजन बनाने को कहकर चल देते हैं और लौटते हैं कभी आधी रात को, कभी कई दिन बाद, किसी समय| लौटते ही उन्हें भोजन चाहिए, तनिक भी देर होने पर एक ही बात उन्हें आती है -शाप देना|
“अब वे इधर कभी झांकेंगे भी नहीं| वे तो दुरात्मा दुर्योधन की प्रेरणा से आए थे|” पांडवों के परम रक्षक श्रीकृष्ण ने उन्हें पूरी घटना समझाकर निश्चिंत कर दिया और तब उनसे विदा होकर वे द्वारका पधारे|