विदुला के वाक्य
विदुला का एक ही पुत्र था और वह भी युध्द में लड़ने गया था। माता विदुला बड़ी प्रसन्न थी। उसे इस बात पर बड़ा गर्व था कि भले ही उसकी कोख से एक पुत्र जन्मा, लेकिन जब युध्द का अवसर आया तो वह घर में बैठा नहीं रहा। वह दूसरे वीरों के साथ खुशी-खुशी उससे आज्ञा लेकर अपने शस्त्र सहित युध्द क्षेत्र की ओर तेजी से बढ़ गया।
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कई दिन बाद जब उसका पुत्र घर वापस आया तो माता विदुला यह सुनकर बड़ी दु:खी हो उठी कि उसका बेटा तो शत्रु सेना से हारकर युध्द भूमि से भाग आया है।
तब वह क्रुध्द सिंहनी की तरह अपने उस भगोड़े पुत्र को कहने लगी, ‘अरे कायर! तू पराजित-अपमानित होकर भाग आया! तुझे धिक्कार है। उस युवक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसे लगा कि ‘मैं सोचता था कि मेरे जीवित लौट आने से मां प्रसन्न होकर मेरी बलैया लेगी, किन्तु यह तो उल्टे मुझे ही धिक्कार रही है’ अत: उसने मां से कहा, ‘माता! क्या तुम चाहती हो कि मैं युध्द में लड़ते-लड़ते ही मारा जाऊं! क्यों मां! क्या तुम मेरे मरने से ही सुखी होतीं?’ माता विदुला पुन: गुस्से में कह उठी, ‘अरे! कायर! शत्रु को पीठ दिखाकर चले आने से तो अच्छा होता कि तू मेरी कोख से जन्मते ही मर जाता- तो आज मुझे आस-पड़ोस के लोगों से ये शब्द तो नहीं सुनने पड़ते, जो आज मुझे सुनने पड़ रहे हैं! अगर तुझमें मेरे दूध की लाज बचाने की कुछ आन है तो जा, अभी ये सब शस्त्रास्त्र उठाकर युध्द-भूमि में लौट जा और शत्रुओं से फिर युध्द कर। मेरी प्रसन्नता और तेरे पुरुष होने की सार्थकता इसी में है।’ माता की इस वाणी ने पुत्र को उकसाया, उत्तेजना दी और सही दिशा दी। वह अपने शस्त्रास्त्र उठाकर शत्रु से जूझने के लिए तेजी से लौट पड़ा और फिर वह एक दिन विजयी होकर ही माता विदुला की चरण वन्दना करने घर लौटा। लोकमान्य तिलक माता विदुला के उक्त शब्द कभी नहीं भूले।