उपकार
एक स्त्री थी| उसकी आंखें चली गईं| पहले एक गई, फिर दूसरी| वह बहुत परेशान रहने लगी| पति अपनी अंधी पत्नी का बोझ कब तक उठाता! वह उससे अलग रहने लगा| उसकी छोटी लड़की ने भी उससे मुंह मोड़ लिया|
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स्त्री हर काम के लिए पराधीन थी, पर उसे कौन सहारा देता! ऐसी हालत में उसकी एक पुरानी सहेली उसके पास आकर रहने लगी, लेकिन उसका व्यवहार बड़ा अजीब था| वह स्त्री जब पानी मांगे तो एक बार पिला देती|
दूसरी बार मांगने पर कह देती – “मैं तुम्हारी नौकर नहीं हूं| उठो घड़े से लेकर अपने आप पी लो|”
वह कपड़े मांगती तो एक बार दे देती, दूसरी बार मांगने पर कह देती – “अलमारी में रखे हैं| जाओ अपने आप ले आओ|”
कभी उसका मन घूमने का होता तो एक बार साथ चली जाती| दूसरी बार जाने की बात आती तो कह देती – “मुझे काम है| तुम अकेली घूम आओ|”
अंधी स्त्री मन मसोसकर उठती और काम करती|
असल में बात यह थी कि सहेली उसे कम प्यार नहीं करती थी और न ही काम से बचना चाहती थी| वह बार-बार दया दिखाकर उसको सदा के लिए अपाहिज नहीं बनाना चाहती थी|
धीरे-धीरे वह स्त्री सब काम अपने-आप करने लगी|
उसे किसी के सहारे की जरूरत न रही| तब उसने समझा कि उसकी सहेली ने उसके ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया|
फिर वह अंधों की एक संस्था में चली गई और वहां उसने जाने कितने असहाय भाई-बहनों को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया|