त्याग और लोभ
किसी नगर में एक सेठ रहता था| उसके पास बहुत धन था| उसकी तिजोरियां हमेशा मोहरों से भरी रहती थीं, लेकिन उसका लोभ कम नहीं होता था| जैसे-जैसे धन बढ़ता जाता था, उसकी लालसा और भी बढ़ती जाती थी|
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सेठ बहुत ही कंजूस था| कभी किसी को एक कौड़ी भी नहीं दे सकता था| अगर कोई उसके दरवाजे पर आकर हाथ फैलाता तो वह उसे दुत्कार देता|
संयोग की बात कि एक दिन उसके यहां एक साधु आया| उसे देखकर अचानक सेठ को जाने क्या हुआ कि उसने एक पैसा उसकी झोली में डाल दिया| साधु चला गया|
लेकिन सेठ ने आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उसने देखा कि शाम को उसे एक मोहर प्राप्त हो गई है| पैसे के बदले में मोहर! वाह! मारे खुशी के वह कूदने लगा, परंतु थोड़ी ही देर में उसकी सारी खुशी काफूर हो गई उसके भीतर कोई कह रहा था – ‘ओ मुर्ख! तूने साधु को पैसा ही क्यों दिया? यदि एक मोहर दी होती तो तू न जाने कितना मालामाल हो जाता!’
इस विचार के आते ही सेठ ने अपने को धिक्कारा| हां सचमुच उसने मूर्खता की अब वह साधु के आने की बाट जोहने लगा, पर उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी अगले दिन ही वह साधु फिर आ गया|
साधु को देखते ही सेठ ने झट अपनी तिजोरी से एक मोहर निकाली और साधु की झोली में डाल दी| मोहर लेकर साधु चला गया तो सेठ के लिए एक-एक पल एक-एक युग के समान हो गया| वह चाहता था कि कैसे भी शाम हो जाए|
पर शाम तो हुई और रात भी हो गई, लेकिन उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई| मोहरें मिलना तो दूर, हाथ में आई मोहर भी निकल गई| वह सिर धुनने लगा| तभी आकाशवाणी हुई – ‘सेठ याद रख, त्याग फलता है, लोभ छलता है|’