त्याग के आदर्श (सच्ची घटनाएँ)
बद्रीनारायण में एक साधु की अँगुली में पीड़ा हो गयी| किसी ने कहा कि यहाँ अस्पताल है, जहाँ मुफ्त में इलाज होता है| आप वहाँ जाकर पट्टी बँधवा लें| उस साधु ने उत्तर दिया कि अँगुली की पीड़ा तो मैं सह लूँगा, पर मैं किसी को पट्टी बाँधने के लिये कहूँ-यह पीड़ा मेरे से सही नहीं जाती!
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एक साधु थे| उनसे किसी ने पूछा कि ‘आपके पास एक पैसा भी नहीं है, फिर आप भोजन कहाँ पाते हो?’ साधु ने कहा कि ‘भिक्षा पा लेते हैं’| उसने फिर पूछा कि कभी भिक्षा न मिले तो? साधु बोला-‘तो फिर भूख को ही पा लेते हाँ!’ भूख को पाने का तात्पर्य है कि आज हम भोजन नहीं करेंगे; क्योंकि भूख का ही भोजन कर लिया!
एक सज्जन साइकिल में चढ़कर कहीं जा रहे थे| साइकिल सड़क के बीच में थी| पीछे से एक ट्रकवाला आया और ट्रक रोककर बोला कि ‘अरे! बीच में क्यों चलाते हो? या इस तरफ चलो, या उस तरफ!’ सज्जन को चेत हो गया कि जीवन में भी मैं ऐसे ही बीच में चल रहा हूँ, अब एक तरफ हो जाना चाहिये| वे सब कुछ छोड़कर साधु बन गये!
एक साधु थे| वे किसी से कुछ माँगते नहीं थे| मंगना तो दूर रहा, यदि कोई उनसे पूछता कि रोटी लोगे तो वे साफ ‘ना’ ख देते, भले ही वे दो-तीन दिन से भूखे क्यों न हों! हाँ, उनके सामने कोई रोटी रख देता तो वे खा लेते थे|
ऋषिकेश की बात है| एक साधु बाहर गये हुए थे| पीछे से कोई उनकी कुटिया में ठंडाई की सामग्री रख गया| साधु ने आकर उसे देखा तो वे कुटिया के भीतर नहीं गये, बाहर ही रहे| जब तक चींटियाँ उस सामग्री को खा नहीं गयीं, तबतक वे साधु कुटिया के बाहर ही रहे!
ऋषिकेश के प्रसिद्ध सन्त श्रीस्वयंज्योति जी महाराज की फटी लँगोटी देखकर एक साधु सुई-धागा ले आया| महाराज जी ने कहा कि सुई-धागा यहीं रख दो, मैं खुद लँगोटी सिल लूँगा| महाराज जी ने अपने हाथों से लँगोटी सिल ली| दूसरे दिन वह साधु बोला कि इसकी फिर कभी भी जरूरत पड़ सकती है, इसलिये पास में सुई-धागा रहना चाहिये| महाराज जी ने कहा कि इस ‘चाहिये’ को मिटाने के लिये ही तो हम यहाँ जंगल में आये हैं! इस सुई-धागे को यहाँ से ले जाओ| यह ‘चाहिये’ हमें नहीं चाहिये!
एक संन्यासी थे| एक बार मेले में उन्होंने अपनी स्त्री को देखा तो पूछ बैठे कि तुम यहाँ कब आयी? स्त्री ने उत्तर दिया कि आपने संन्यास ले लिया, क्या अब भी मेरे को पहचानते हो? उत्तर सुनकर संन्यासी को इतनी लज्जा आयी कि उन्होंने अपना सिर झुका लिया| फिर उन्होंने जीवन भर सिर झुकाये रखा, कभी किसी को सिर उठाकर नहीं देखा|
काशी से विद्या पढ़कर एक अच्छे विद्वान ब्राह्मण नगर में आये| उनका सत्संग करते-करते वहाँ के राजा की उनके साथ मित्रता हो गयी| राजा ने उनको मकान बना दिया, उनका विवाह करा दिया और अन्त में अपना आधा राज्य भी उनको दे दिया| एक दिन राजा ने पाने ब्राह्मण मित्र से कहा कि जो कुछ मेरे पास है, वह तुम्हारे पास भी है| बताओ, तुममें और मुझमें क्या फर्क है? ब्राह्मण ने कहा कि कभी मौका पड़ने पर फर्क बताउँगा| एक दिन दोनों घूमने के लिये चार घोड़ो की बग्घी पर चढ़कर बाहर गये| ब्राह्मण ने राजा से कहा कि तुम फर्क पूछते थे, मैं अभी जा रहा हूँ, तुम भी मेरे साथ आ जाओ! राजा देखता रह गया और वह ब्राह्मण चला गया, फिर कभी लौटकर नहीं आया| राजा फर्क समझ गया!
समुद्र-तट की दीवार पर एक सज्जन बैठे थे| उन्होंने देखा कि एक जवान आदमी हाथ में धोती-लोटा लिये आया| उसने धोती-लोटा किनारे पर रख दिया और कपड़े उतारकर स्नान के लिये समुद्र में घुस गया| इतने में समुद्र की एक बड़ी लहर आयी और उसको अपने साथ ले गयी! धोती-लोटा किनारे पड़ा रह गया और आदमी फिर समुद्र से बाहर नहीं आया| दीवार पर बैठे सज्जन यह सब देख रहे थे| उनकी जीवन की क्षणभंगुरता का साक्षात्कार हो गया था| वे भी दीवार से उतरकर अज्ञात स्थान की ओर चल दिये और भगवान् के भजन में लग गये| फिर कभी लौटकर घर नहीं गये|
त्याग में विचार कैसा? कोई मरता है तो क्या विचार करके मरता है?