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त्याग का आदर्श

किसी बियाबान जंगल में एक साधु रहता था| उसकी कुटिया छोटी-सी थी| कंद-मूल-फल खाकर वह अपना गुजारा करता था तथा दिन-रात ईश्वर के ध्यान में लीन रहता था|

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एक दिन आधी रात के समय किसी ने कुटिया का दरवाजा खटखटाया| साधु ने उठकर दरवाजा खोला| देखता क्या है कि एक आदमी खड़ा है|

पानी से सराबोर, ठंड से थर-थर कांपता हुआ| फिर वह आदमी बड़ी कठिनाई से बोला – “महाराज, बड़ी जोर से बारिश हो रही है| चारों ओर अंधेरा फैला है| मैं रास्ता भूल गया हूं| बड़ी कृपा होगी, अगर आप मुझे रात को अपनी कुटिया में ही रह लेने दें! मैं सवेरे होते ही चला जाऊंगा|”

साधु ने बड़े प्यार से कहा – “इसमें पूछने की क्या बात है| भाई, मेरी कुटिया में एक आदमी सो सकता है, पर दो आदमी बैठ सकते हैं आओ, अंदर आओ| हम बैठकर रात गुजार लेंगे|”

वे दोनों भीतर गए और आग से सहारे बैठकर बातें करने लगे| थोड़ी देर बाड़ दरवाजे पर फिर खटखट हुई| साधु ने द्वार खोला| एक आदमी खड़ा था| पहले आदमी की तरह पानी से तरबतर और कांपता हुआ| साधु को देखकर बोला – “मैं भटकते-भटकते हैरान हो गया हूं| रास्ता नहीं मिलता| क्या आज की रात मैं आपकी कुटिया में बिता सकता हूं, दया कीजिए|”

साधु ने प्रेमपूर्वक कहा – “भैया, यह कुटिया मेरी नहीं तुम सबकी है| इस कुटिया में इतनी जगह है कि एक आदमी लेट सकता है, दो बैठ सकते हैं और तीन खड़े हो सकते हैं| तुम अंदर आ जाओ| तीनों खड़े होकर मौज से बातें करेंगे|”

इतना कहकर उसने बड़ी आत्मीयता से उस आदमी को अंदर कर लिया|

कहते हैं, यह कोई कथा मात्र नहीं है| एक समय था जबकि हमारे देश में दूसरों के लिए लोग बड़े-से-बड़ा त्याग करने को तैयार रहते थे और उस समय के त्याग आज भी हमारे लिए आदर्श हैं|