त्याग भावना
शिबि अपनी त्याग बुद्धि के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। उनकी त्याग भावना तात्कालिक और अस्थायी है या उनके स्वभाव का स्थायी गुण, इसकी परीक्षा करने के लिए इंद्र और अग्नि ने एक योजना बनायी।
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अग्नि ने एक कबूतर का रूप धारण किया और इन्द्र ने एक बाज का। कबूतर को अपना आहार बनाने के लिए बाज ने उसका शिकार करने के लिए पीछा किया। कबूतर तेजी से उड़ता हुआ राजा शिबि के चरणों में जा पड़ा और बोला, मेरी रक्षा कीजिए। शिबि ने उसे रक्षा का आश्वासन दिया। पीछे-पीछे बाज भी आ पहुंचा। उसने शिबि से कहा, महाराज! मैं इस कबूतर का पीछा करता आ रहा हूं और इसे अपना आहार बना कर अपनी भूख मिटाना चाहता हूं, यह मेरा भक्ष्य है। आप इसकी रक्षा न करें।
शिबि ने बाज से कहा, मैंने इस पक्षी को अभय प्रदान किया है। इसे कोई मारे यह मैं कभी बर्दाश्त नहीं करूंगा। तुम्हें अपनी भूख मिटाने के लिए मांस चाहिए, सो मैं तुम्हें अपने शरीर से इस कबूतर के वजन के बराबर मांस काटकर देता हूं। उन्होंने एक तराजू मंगवाई और उसके एक पलड़े में कबूतर को रख दिया। दूसरे पलड़े में महाराज शिबि अपने शरीर से मांस काटकर डालने लगे। काफी मांस काट डाला किंतु कबूतर वाला पलड़ा तनिक भी नहीं हिला और अंत में महाराज शिबि स्वयं उस पलड़े पर जा बैठे और बाज से बोले, मेरा पूरा शरीर तुम्हारे सामने है, आओ भोजन करो।महाराज शिबि की त्याग बुद्धि को स्वीकार करते हुए अग्नि और इंद्र अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हुए और महाराज शिबि को भी उठा कर खड़ा कर दिया। उन्होंने शिबि की त्याग भावना की बड़ी प्रशंसा की, आशीर्वाद दिया और फिर चले गए।त्याग से मनुष्य लाभ प्राप्त करता है। महाराज शिबि ने अपने शरीर को सहर्ष समर्पित कर दिया। अग्नि और इंद्र ने उनकी कितनी कठोर परीक्षा ली। मनुष्य सोचता है कि उसके जीवन में कोई कष्ट न आये। लेकिन जीवन में कोई कष्ट न आये, तो जीवन जड़ हो जाता है। भगवान हमारी परीक्षा लेते हैं जिससे कि हम अपने गुण और शील को संस्कारित कर उन कष्टों का सफलता के साथ सामना कर सकें और भगवान का अनुग्रह प्राप्त कर सकें।