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स्वार्थ त्याग

स्वार्थ त्याग

एक बार की बात है| वीतराग स्वामी सर्वदानन्द जी बिहार के छपरा स्थान पर पहुँचे| उन्होंने देखा कि एक मंदिर के पुजारी बड़े प्रेम से हवन करा रहा था|

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स्वामी जी ने उससे पूछा- “तुम मूर्तिपूजक हो, फिर हवन कैसे कर रहे हो?” उस पुजारी ने बताया कि स्वामी दयानन्द की कृपा से उसे हवन से प्रेम हुआ है| मंदिर की पूजा तो वह पेट के कारण करता है| जब स्वामी दयानन्द शास्त्रार्थ करने जाते थे तब वह उनकी पुस्तकें उठाकर चलता था| स्वामी सर्वदानन्द जी ने कहा- “तुम एकदम ऐसे कैसे बदल गए?” तो पुजारी ने बतलाया कि छपरा के पास एक छोटी-सी रियासत है| वहाँ की एक रईस ने स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के लिए सोलह पंडितों को तैयार किया| एक ओर सोलह चौकियाँ बिछा दी, सामने दूसरी ओर एक चौकी बिछवा दी गई| सोलह पंडित जब चौकियों पर बैठ गए, तब रईस ने अपना सेवक भेजकर स्वामी जी को बुलाया| छह फुट पाँच इंच ऊँची उनकी युवा पुष्ट आकृति देखकर पंडित भौचक्के रह गए| उनमें से किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि शास्त्र के किसी प्रश्न पर स्वामी जी से टक्कर लेता| उनमें से किसी को स्वामी जी से बात करने की हिम्मत नहीं हुई; परंतु कुछ तो कहना ही था; बोले, हम शास्त्रार्थ नहीं कर सकते| हमारा अपमान हुआ है| हमारे लिए लड़की की चौकियाँ मँगवाई गई हैं और स्वामी जी के लिए पत्थर की| हमारा अपमान हुआ है| हम शास्त्रार्थ नहीं करेंगे| सोलह पंडित चौंकियों से उठ गए|

स्वामी जी ने कहा- “मैं संगमरमर की चौकी छोड़ता हूँ| आओ, भूमि पर बैठकर शास्त्रार्थ कर ले|”

पंडितों को यह भी स्वीकार नहीं हुआ और वे चल दिए| पुजारी ने कहा- “स्वामी जी की विद्वता का सभी लोहा मानते थे, परंतु उनकी स्वार्थ त्याग ने मेरी आँखें खोल दी|” इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक मनुष्य में स्वार्थ त्याग की भावना होनी चाहिए|