सच्ची संपदा

एक सेठ था| उसके पास बहुत संपत्ति थी| वह अपने करोबार से बहुत ही संतुष्ट था| अचानक एक दिन उसने हिसाब लगाया तो पता चला कि वह संपत्ति उसके और उसके बच्चों तक के लिए ही काफी होगी, लेकिन बच्चों के बच्चों का क्या होगा?

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इस विचार के आते ही सेठ भारी चिंता में पड़ गया| संयोग से उन्हीं दिनों एक महात्मा उस नगर में आया, जो सबकी इच्छा पूरी कर देता था| सेठ उसके पास पहुंचा और कहा – “महाराज मुझे इतनी संपत्ति चाहिए कि मैं भोगूं, मेरे बच्चे भोगें, उनके बच्चे भोगें और फिर भी वह कभी खत्म न हो|”

महाराज ने कहा – “ऐसा ही होगा, पर इसके लिए तुम्हें एक काम करना होगा| तुम्हारे घर के पास एक टूटी-फूटी झोंपड़ी में सास-बहू रहती हैं| कल उनको एक दिन के खाने जितना सीधा (भोज्य सामग्री) दे आना| बस तुम्हारी इच्छा पूरी हो जाएगी|”

सेठ की खुशी का ठिकाना न रहा| उसकी रात बड़ी मुश्किल से कटी| दिन निकलते ही वह सीधा लेकर झोंपड़ी में पहुंचा| उसने वहां देखा, सास ध्यान में लगी है, बहू झोंपड़ी की सफाई कर रही है|

सेठ ने बहु से कहा – “यह लो, मैं तुम्हारे लिए दाल, आटा, घी नमक लाया हूं|”

बहू ने निगाह उठाकर उसकी ओर देखा और बोली – “हमें नहीं चाहिए, हमारे पास आज के खाने के लिए है|”

“तो क्या हुआ!” सेठ ने कहा – “कल काम आ जाएगा|”

बहू बोली – “हम अगले दिन के लिए संग्रह नहीं करते| भगवान हमें रोज देता है|”

यह सुनकर सेठ अवाक् रह गया| सोचा – ‘एक ओर ये लोग हैं, जो कल की चिंता नहीं करते और दूसरी ओर मैं हूं, जो बच्चों के बच्चों की चिंता में मरा जा रहा हूं|’

उसकी आंखें खुल गईं| उसने फिर धन की लालसा नहीं की| अब उसने ये बात समझ ली कि हमें आज में जीना चाहिए|