सच्ची दया

सच्ची दया

प्राचीन समय की बात है| युवक मूलशंकर, ‘ब्रह्मचारी शुद्ध चैतंय’ बनकर ज्ञानार्जन के लिए, सच्चे शिव की खोज में किसी अच्छे गुरु से दीक्षा ग्रहण करने के लिए देशाटन कर रहे थे कि एक दिन उन्होंने देखा कि कुछ लोग गाजे-बाजे के साथ जा रहे थे|

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उनके पीछे रोती-बिलखती सफ़ेद वस्त्र पहने एक दुःखी औरत जा रही थी| ब्रहमचारी शुद्ध चैतंय ठिठक गए| उस रोती औरत को पुकारते हुए उन्होंने कहा- “माँ, क्या बात है? क्या कष्ट है जो तुम ऐसे बिलख-बिलखकर रो रही हो?” उस औरत ने कहा- “मैं एक अभागी विधवा हूँ|

ये लोग मेरे इकलौते लड़के को देवी की बलि बनाना चाहते हैं| मेरी किसी पुकार अनुनय-विनय का इन पर कोई असर नहीं हुआ| उस दुःखी माँ के साथ ब्रह्मचारी शुद्ध चैतंय मंदिर पहुँचे| वहाँ देवी की मूर्ति के सामने एक छोटे से अबोध बच्चे को जबरदस्ती लिटाया हुआ था| बच्चा चीख-पुकार कर रहा था, पर किसी पर कोई असर नहीं हो रहा था| मंदिर के अन्दर पहुँचकर ब्रह्मचारी शुद्ध चैतंय ने उन सबको डाँटा-ललकारा और कहा- “इस बच्चे और विधवा नारी पर क्यों अत्याचार करते हो?” वे ढोंगी बोले- “हमें तो देवी को बलिदान देना है| यह बच्चा बचाना चाहते हो तो खुद की बलि दो|” कहते हैं कि एक क्षण का संकोच किए बिना उस दयालु युवक ने अपनी गर्दन बलि के स्थान पर रख दी| वे सब ढोंगी जन हर्ष से चिल्ला उठे| वे आगे कुछ करते, इससे पहले ही शोर सुनकर वहाँ कंपनी के कुछ सिपाही आ गए| उन्होंने सारा माजरा देखकर उन ढोंगियों को ललकारा| वे अपनी सारी पूजा सामग्री और हथियार छोड़कर भाग निकले| उस माँ ने उस ब्रहमचारी के पैरों में सिर नवा दिया और उसकी दया के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकट की|

कहते हैं कि इसी घटना के बाद स्वामी पूर्णानन्द जी ने ब्रहमचारी शुद्ध चैतंय को दीक्षा देकर दयानन्द नाम दिया और अपनी शिक्षा पूर्ण करने के लिए अपने शिष्य मथुरावासी गुरु विरजानन्द के पास जाने का परामर्श दिया था|

प्रत्येक मनुष्य के दिल में इसी प्रकार की दया होनी चाहिए|